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Ravi Prakash's Blog – August 2013 Archive (5)

कवि का मन - (रवि प्रकाश)

छंद -15 गुरु अथवा 30 मात्राएँ (16 पर यति)



अम्बर कैसे झूला झूले,नदियाँ कैसे गाती हैं;

तारों की सौगातें ले कर,रातें मन बहलाती हैं।

सूरज के माथे पे आख़िर,किसके मद की लाली है;

अँगड़ाई लेते पत्तों पर,किसने शबनम डाली है।

किरणों के आभूषण पहने,भोरें क्यों इठलाती हैं;

कलियों की चटकीली गलियाँ,भौँरों को भरमाती हैं।

सुध-बुध अपनी खो कर कितना,दोपहरें अलसाती हैं;

दिन की पीड़ा हरते-हरते,साँझें क्यों सँवलाती हैं।

गुलमोहर की डाली से क्यों,चंदा उलझा रहता… Continue

Added by Ravi Prakash on August 21, 2013 at 5:30am — 7 Comments

निरर्थक - (रवि प्रकाश)

मरियल गाय सी

आँगन में खड़ी धूप में,

पर-कुतरी चिड़िया की तरह

मुँह के बल लाचार हवा गिरती है,

आधी टूटी अगरबत्ती से सरकते

बेजान धुँए की लकीरों से

ज़बरदस्ती दबाए गए

बीड़ी और शराब के भभके,

बालिश्त भर के रसोईघर में

धुँए से झाँकती दो-चार लपटों पर

निहत्थे तवे की छाती से चिपकी

काली चौकोर रोटी,

पीतल की पुरानी हँडिया

टूटे नल से रिसते पानी को

सँजोने की नाकाम कोशिश में

अक्सर घबड़ा जाती है।

दीवारों की उभरी पसलियों पर

मुँह फुलाए… Continue

Added by Ravi Prakash on August 15, 2013 at 10:18pm — 7 Comments

रूप तुम्हारे -(रवि प्रकाश)

मंदिर-मंदिर सजने वाली,

अक्षत,चंदन-सज्जित थाली।

या तुम कोई दीपशिखा हो,

जिस पर जीवन-जोत लिखा हो।

पूजन कोई नमन पुकारे,

जाने कितने रूप तुम्हारे॥



रात का भीगा अश्रु-कण हो,

नव विहान की प्रथम किरण हो।

तपी दोपहर अलसाई सी,

सन्ध्या थोड़ी सकुचाई सी।

चन्द्रलेख हो पंख पसारे,

जाने कितने रूप तुम्हारे॥



फागुन की मादक बयार भी,

पावस की पहली फुहार भी।

कार्तिक की हल्की सी ठिठुरन,

पौष-माघ की ठण्डी सिहरन।

तुझमें खिलते मौसम… Continue

Added by Ravi Prakash on August 11, 2013 at 9:00pm — 25 Comments

अन्वेषण - (रवि प्रकाश)

मंज़िल-मंज़िल ढूँढ़ा जिसको,रस्ते-रस्ते खोजा है;

मस्जिद-मस्जिद रोज़ पुकारा,मंदिर-मंदिर पूजा है।

कभी तलाशा महफ़िल-महफ़िल,परबत-परबत छाना है;

गलियों-गलियों खूब टटोला,नगरी-नगरी माना है।

गर्म सुनहले आतप में भी,खिलती नर्म बहारों में,

बहुतेरे हम भटक चुके हैं,सिकता भरे कछारों में।

सागर-सागर,नदिया-नदिया,कितने गोते खाए हैं;

अंतरिक्ष की सीमाओं का,अतिक्रमण कर आए हैं।

कुछ मझधारों ने भरमाया,कुछ लहरों ने धोया भी;

क्या-क्या पा जाने की धुन में,जाने क्या कुछ खोया… Continue

Added by Ravi Prakash on August 5, 2013 at 7:27pm — 13 Comments

मत्तगयंद सवैये - (रवि प्रकाश)

प्रथम प्रयास

- - - - - - - - -

1. बंजर हो धरती कितनी पर ये मन उर्वर देश वही है।

शूल गड़े दुखते तन में नित कातरता पर लेश नहीं है।

कौन मुझे समझे,परखे,उलझा अपना चिर वेश वही है।

कुंठित हो कर भी मुझमें कुछ धार अभी तक शेष कहीं है॥

2.

सादर है अधिकार तुम्हें तुम रूप-सुधा अविराम लुटाना।

तारक,हीरक या मणि-कांचन-मंडित जीवन पे इतराना।

यौवन की चिनगी दिखला कर प्रेम-हुताशन भी सुलगाना।

प्यास बुझे न नदी-जल से जब सागर के तट गागर लाना॥…



Continue

Added by Ravi Prakash on August 2, 2013 at 8:00am — 11 Comments

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