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Umesh katara's Blog – June 2014 Archive (3)

गज़ल

कभी का मर चुका हूँ मैं महज साँसें ही चलती है

मेरी पथरा गयी आँखें मगर फिर भी बरसती हैं

के अक्सर खींच लाती है मुझे लहरों की ये मस्ती

मगर मँझधार में लाकर ये लहरें क्यों मचलती हैं

बहुत है दूर वो मुझसे नहीं आना कभी उसको

मगर दीदार को आँखें न जाने क्यों तरसती हैं

कहीं गुमनाम हो जाऊँ ये शहरा छोड कर मैं भी

मगर दुनियाँ तेरे जैसी तेरे जैसी ही बस्ती हैं

मेरा ये बावफा होना किसी को रास ना आया

सभी की आदतें आपस में…

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Added by umesh katara on June 21, 2014 at 7:00pm — 4 Comments

गजल -

फिर किया है कत्ल उसने इश्तिहार है

शुक्र है वो हर गुनाह का जानकार है

कत्ल वो हथियार से करता नहीं कभी

कत्ल करने की अदा कजरे की धार है

अब वफादारी निभाता कौन है यहाँ

अब मुहब्बत हो गयी नौकाबिहार है

आजकल लगने लगा हैं वो कुछ नया नया

फिर हुआ शायद कोई उसका शिकार है

झूठ भारी हो गया सच के मुकाबले

आजकल सच हारता क्यों बार बार है

मार डालें ना मुझे बेचैनियाँ मेरी

दिल मेरा ये सोचकर अब सौगंवार…

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Added by umesh katara on June 11, 2014 at 2:00pm — 19 Comments

गजल-पीठ पर वो बार करने का हुनर

आँसुओं से हम गजल लिखते रहे

कागजों में दर्द बन बिकते रहे

वो पराये हो चुके थे अब तलक

और हम अपना समझ झुकते रहे

पीठ पर वो बार करने का हुनर

उम्र भर हम याद ही करते रहे

हद से ज्यादा हम हुये जब गमजदा 

बारबा वो खत तेरा पढ़ते रहे 

तू गया कितने जलाकर आशना

आशना वो आज तक जलते रहे

हम समझ कर आदमी को आदमी

साथ हम शैतान के चलते रहे

उमेश कटारा

मौलिक व अप्रकाशित…

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Added by umesh katara on June 7, 2014 at 3:00pm — 14 Comments

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