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गिरिराज भंडारी's Blog – June 2016 Archive (10)

ग़ज़ल -है फर्क बहुत मेरे तेरे गुलज़ारों में -( गिरिराज भंडारी

22   22   22   22   22   2   ( बहरे मीर )

है फर्क बहुत मेरे तेरे गुलज़ारों में

महज़ साम्य है विज्ञापित दीवारों में

 

तुम अच्छाई खोजो इन हत्यारों में

हम भी खुशियाँ खोजेंगे इन हारों में

 

कहीं खून से होली खेली जाती है

कहीं दूध है प्रतिबंधित त्यौहारों में

 

पत्थर होगा वो तुमने जो घर लाया  

मोम कहाँ मिलते हैं इन बाज़ारों में

 

फुट पाथों को तुम भी रौंदोगे इक दिन

हो जाती है यही तेवरी कारों…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 29, 2016 at 8:30am — 6 Comments

दो कुन्डलिया -- गिरिराज भंडारी

1- नाम वरों में छुप रहे

नामवरों में छुप रहे , सारे गलती बाज

सच के आगे किस तरह , मची हुई है खाज

मची हुई है खाज , खून उभरा है तन में

लेकिन कोई लाज , कहाँ कब दिखती मन में

सत्य गिनेगा नाम , कभी तो जानवरों में

आज छिपालो झूठ, किसी का नामवरों में

****************

2- गिरगिट मानव देख

धोती में अपनी कभी , नही देखते दाग

और लगाते हैं सदा , अन्य वसन में आग

अन्य वसन में आग , लगाते हैं वो सारे

जिनको डर है सत्य,  कहीं ना उनको…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 28, 2016 at 7:00am — 16 Comments

दो वैचारिक अतुकांत --1- टूटता भ्रम और 2-मिसाइलें

1-    टूटता भ्रम

धराशायी हो जायेंगी आपकी धारणायें ,

छिन्न- भिन्न- सा होता प्रतीत होगा आपको

आपके रिश्तों का सच

 

एक बार , बस एक बार

उस झूठ के खिलाफ खड़े हो जाइये

डट कर चट्टान की तरह

जिसे बहुमत ने सच माना है

 

टूट जायेगा आपका भ्रम  

आपके चारों तरफ भी भीड़ होने का

अपने पीछे अचानक प्रकट हुये शून्य को देख कर

 

ये बात और कि लड़ाइयाँ केवल इसीलिये नहीं लड़ी जातीं

कि , हम…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 27, 2016 at 6:30am — 17 Comments

गज़ल - गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22  2    

गंग-जमन मिल जायें ये इच्छा भी है

बम-बन्दूकें लेकर वो बैठा भी है

 

ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी

अब शहरों मे सापों का डेरा भी है

 

सूरज की चाहत पर मर जाने वाला

घुप्प अँधेरों के रिश्ते जीता भी है  

 

जिसे मंच ने कल नदिया का नाम दिया

क्या सच में उसमें पानी बहता भी है ?

 

बेंत नुमा हर शब्द शब्द है झुका झुका

अर्थ मगर उसका ऐंठा ऐंठा भी है   

 

तू भी तो कुछ…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 25, 2016 at 8:00am — 17 Comments

ग़ज़ल - कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   22 

वुसअतें दिल मे समा जायें तो जहाँ अपना

वगरना खून का रिश्ता भी है कहाँ अपना

 

अहले तक़रीर की आतिश बयानी तुम ले लो

रहे जो सुन के भी ख़ामोश-बेज़ुबाँ, अपना

 

ये कैसा रास्ता है सिर्फ अँधेरा है जहाँ

कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना

 

फड़फड़ा कर मेरे पर बोलते यही होंगे

ये ज़मीं सारी तुम्हारी है , आसमाँ अपना

 

इसे नादानी कहें या कि कहें मक्कारी

समझ रहे हैं दुश्मनों को पासबाँ…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 22, 2016 at 8:50am — 21 Comments

ग़ज़ल - मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22

लगता है अब काला पैसा खेल रहा है

मुल्क हमारा इसीलिये तो झेल रहा है

 

वर्षो तक अंधों के जैसे राज किया जो

वो भी देखो प्रश्न हज़ारों पेल रहा है

 

धर्म अगर केवल होता तो ये ना होता

मगर धर्म से राज नीति का मेल रहा है

 

कैसे उसकी यारी पर विश्वास करूँ मैं

मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है

 

देखो चीख रहा है वो भी परचम ले कर

जो ख़ुद अपने ही निजाम में फेल रहा है

 

वो…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 20, 2016 at 9:00pm — 15 Comments

ग़ज़ल - डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो ( गिरिराज भंडारी )

2122   1122    1122   22 /112

.

तुम जो चाहो तो ये गिर्दाब, किनारा लिख दो

डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो

 

कैसे उस चाँद को धरती पे उतारा लिख दो

कैसे आँगन में हुआ खूब नज़ारा लिख दो

 

खटखटाने से कोई दर न खुले, तो दर पर 

बारहा मैने तेरा नाम पुकारा लिख दो

 

जंग अपनो से भला कैसे कोई कर लेता

ख़ुद को जीता, तो कहीं मुझको ही हारा लिख दो 

 

हो यक़ीं या कि न हो तुम तो लिखो सच अपना   

दश्ते…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:30am — 59 Comments

दोहा- ग़ज़ल (जिसकी जितनी चाह है, वो उतना गमगीन (गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22   22

बात सही है आज भी , यूँ तो है प्राचीन

जिसकी जितनी चाह है , वो उतना गमगीन

फर्क मुझे दिखता नहीं, हो सीता-लवलीन

खून सभी के लाल हैं औ आँसू नमकीन

क्या उनसे रिश्ता रखें, क्या हो उनसे बात

कहो हक़ीकत तो जिन्हें, लगती हो तौहीन   

सर पर चढ़ बैठे सभी , पा कर सर पे हाथ

जो बिकते थे हाट में , दो पैसे के तीन

 

बीमारी आतंक की , रही सदा गंभीर

मगर विभीषण देश के , करें और…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 9, 2016 at 7:30am — 40 Comments

ग़ज़ल - चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है - गिरिराज भंडारी

22 22  22  22  22  2

तुम केवल परिभाषा जानो ,अच्छा है

और अमल सब हमसे चाहो, अच्छा है

 

देव सभी हो जायें तो , मुश्किल होगी

पाठ लुटेरों का भी रक्खो , अच्छा है

 

पत्थर जब जग जाते हैं, श्री चरणों से

इंसा छोड़ो , उन्हें जगाओ, अच्छा है

 

समदर्शी होता है ऊपर वाला, पर

छोड़ो भी , तुम काटो- छाँटो, अच्छा है

 

सूरज ,चाँद, सितारे, दुनिया को छोड़ो

चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है

 

धड़ सारा कालिख में है…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 8, 2016 at 8:00am — 24 Comments

ग़ज़ल - पर हृदय में आज भी जीती चुभन है - गिरिराज भन्डारी

2122    2122    2122

जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है

सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है

 

कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो

आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है

 

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब

पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

 

मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था

कह रहा संसार पर दोषी नयन है

 

सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?

तर्क झूठों को बचाने का जतन है

 

क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 3, 2016 at 8:54am — 12 Comments

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