मात्रिक छन्दों में भुजंगप्रयात छन्द का प्रमुख स्थान रहा है. यह एक अत्यंत प्रसिद्ध छन्द है.
यगण (यमाता, ।ऽऽ, १२२, लघु गुरु गुरु) की चार आवृतियों से बना वृत भुजंग यानि के सर्प की गति का सा आभास देता है. यही इस छन्द के नामकरण का कारण हुआ है.  
 
 सूत्र -  यमाता यमाता यमाता यमाता  
 या,  ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ   
 या,  लघुगुरुगुरु लघुगुरुगुरु लघुगुरुगुरु लघुगुरुगुरु 
 
 इस छन्द से मिलते-जुलते अन्य स्वरूप भी हैं. जैसे, यगण की आवृति आठ बार हो तो यह वृत सवैया वृत है जिसका नाम महाभुजंगप्रयात सवैया है. 
 यगण की आठ आवृतियों में आठवीं आवृति का अंतिम गुरु निकल जाय तो वह वृत वागीश्वरी सवैया हुआ करता है. 
 उपरोक्त दोनों सवैये, अर्थात महाभुजंगप्रयात तथा वागीश्वरी, यगणाश्रित सवैये हैं. इनके बारे में सवैया के पाठ में विशद ढंग से कहा गया है.
ज्ञातव्य: सवैया वृत या दण्डक होने के कारण वर्णिक छंद हुआ करते हैं.
हम इस पाठ में भुजंगप्रयात छन्द पर ध्यान केन्द्रित रखेंगे. 
 इस छन्द का एक उदाहरण -
 
 मिला रक्त मिट्टी.. भिगोयी-सँवारी 
 यही साधना, मैं इसी का पुजारी
 यही छाँव मेरी, यही धूप माना
 यही कर्म मेरे, यही धर्म जाना 
 
 यहाँ भूख से कौन जीता कभी है 
 बिके जो बनाया, घरौंदा तभी है 
 तभी तो उजाला, तभी है सवेरा 
 तभी बाल-बच्चे, तभी हाट-डेरा 
 
 कलाकार क्या हूँ.. पिता हूँ, अड़ा हूँ
 घुमाता हुआ चाक देखो भिड़ा हूँ 
 कहाँ की कला ये जिसे खूब बोलूँ 
 तुला में फतांसी नहीं, पेट तौलूँ 
 
 न आँसूँ, न आहें, न कोई गिला है
 वही जी रहा हूँ, मुझे जो मिला है
 कुआँ खोद मैं रोज पानी निकालूँ  
 जला आग चूल्हे, दिलासे उबालूँ 
 
 घुमाऊँ, बनाऊँ, सुखाऊँ, सजाऊँ 
 यही चार हैं कर्म मेरे निभाऊँ 
 न होठों हँसी, तो दुखी भी नहीं हूँ 
 जिसे रोज जीना.. कहानी वही हूँ .. .      (इकड़ियाँ जेबी से)
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ध्यातव्य : उपलब्ध जानकरियों के आधार पर
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अनुमोदन हेतु सादर आभार. आदरणीय सत्यनारायणजी.. 
अरे आदरनीय
कहाँ गड़बड़ा गये i यह छंद आदरणीय सौरभ जी का है i मुझे काँटों में न घसीटे अग्रज i शान्तं पापं i सादर
आपकी पारिस्थिक विवशता को मैं समझ सकता हूँ आदरणीय विजयशंकरजी.
हा हा हा हा.. . आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपने तो मुझे भी चौंका दिया है.. :-))
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , ( भूल सुधार के साथ ) मुझे तो आपकी यह रचना बहुतकुछ बोलती लगी, पसंद आई .
 " मिला रक्त मिट्टी.. भिगोयी-सँवारी
 यही साधना, मैं इसी का पुजारी
 यही छाँव मेरी, यही धूप माना
 यही कर्म मेरे, यही धर्म जाना "
 सभी छंद बहुत अच्छे लगे , छंदों की विविधता तो मुझे अभी समझनी बाकी है , हाँ , यह जरूर है कि बात जो सही लगे , मन भाये , लुभाये वही अच्छी कहलाये।
 बहुत बहुत बधाई , सादर .
आदरणीय विजयशंकरजी, आप भुजंगप्रयात छन्द के आलेख को एकबारगी पढ़ जायँ. यदि संप्रेषणीयता में किंचित सुधार की आवश्यकता हो तो अवश्य साझा करें. 
आपसे भी छान्दसिक रचनाओं पर अभ्यास की अपेक्षा है. इसी छन्द से क्यों न आप प्रारम्भ करें.. !
आपको इस छन्द पर मेरा प्रयास रुचिकर लगा यह मेरे लिए भी अतीव प्रसन्नता की बात है. 
सादर
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