For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"OBO लाइव तरही मुशायरा" अंक-८ ( Now closed )

परम स्नेही स्वजन,
इस बार तरही मुशायरे के लिए दो मिसरे दिए जा रहे हैं और दोनों ही उस्ताद शायरों की बड़ी मशहूर ग़ज़लों से लिए गए हैं

पहला मिसरा जनाब कैसर साहब की गज़ल से लिया गया है

शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है

मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन फा
२२२२         २२२२          २२२२          २
बहरे मुतदारिक की मुजाइफ़ सूरत

रदीफ     : लगता है
काफिया : आ की मात्रा

दूसरा मिसरा जनाब बाल स्वरुप "राही" साहब की गज़ल से लिया गया है

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे

मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन फेलुन फा
२२२२          २२२२         २२२२         २२     २ 
बहरे मुतदारिक की मुजाइफ़ सूरत

रदीफ     : कहे
काफिया : आर
 
 
इन दोनों मिसरों में से किसी पर भी गज़ल कही जा सकती है| नियम और शर्तें पिछली बार की तरह ही हैं अर्थात एक दिन में केवल एक ग़ज़ल, और इसके साथ यह भी ध्यान देना है की तरही मिसरा ग़ज़ल में कहीं ना कहीं ज़रूर आये तथा दिये गये काफिया और रदिफ़ का पालन अवश्य हो | ग़ज़ल में शेरों की संख्या भी इतनी ही रखें की ग़ज़ल बोझिल ना होने पाए अर्थात जो शेर कहें दमदार कहे |
आप सभी फनकारों से नम्र निवेदन है कि  कृपया एक दिन मे केवल एक ही ग़ज़ल प्रस्तुत करे, एक दिन मे एक से अधिक पोस्ट की हुई ग़ज़ल बिना कोई सूचना दिये हटाई जा सकती है |

मुशायरे की शुरुवात दिनाकं 23 Feb 11 के लगते ही हो जाएगी और 25 Feb 11 के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |

नोट :- यदि आप ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के सदस्य है और किसी कारण वश "OBO लाइव तरही मुशायरा" के दौरान अपनी रचना पोस्ट करने मे असमर्थ है तो आप अपनी रचना एडमिन ओपन बुक्स ऑनलाइन को उनके  इ- मेल admin@openbooksonline.com पर 23 फरवरी से पहले भी भेज सकते है, योग्य रचना को आपके नाम से ही "OBO लाइव तरही मुशायरा" प्रारंभ होने पर पोस्ट कर दिया जायेगा, ध्यान रखे यह सुविधा केवल OBO के सदस्यों हेतु ही है |

फिलहाल Reply बॉक्स बंद रहेगा, मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ किया जा सकता है |

"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह

 

Views: 9759

Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

दिन दिन भर तेरी यादों के जुगनू चुनता हूँ,

शाम ढले इस सूने घर मे मेला लगता है.....

 

मिट्टी के टूटे घरों में प्यार अभी  पलता है,

जिनके आगे ताजमहल भी फीका लगता है.....

 

bahut khoob .....!!

 

वाह वाह हरजीत साहिब  , बेहद खुबसूरत ख्यालात है , ग़ज़ल के प्राथमिक शिल्प पर भी खरा , जैसा की और साथी लोग कहे है कहन सही हो तो शेष नियम धीरे धीरे सिखा जा सकता है ,

 

मुझे आपके सभी शे'र अच्छे लगे , बधाई स्वीकार कीजिये इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर |

मिट्टी के टूटे घरों में प्यार अभी  पलता है,

जिनके आगे ताजमहल भी फीका लगता है.....

 

waah waah...bahut hi badhiya sher... badhai aapko.. Harjeet ji...

वाह वाह हरजीत जी, बहुत सुंदर कथ्य है। सुंदर रचना है। अगर आप काफिया रदीफ ना जानते हुए भी इतना अच्छा लिख सकते हैं तो ग़ज़ल कहना आपके लिए मुश्किल नहीं होगा। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
वाह ..बेहतरीन तरीके से गिरह का शेर कहा गया है....मज़ा आ गया ..हरजीत सिंह जी बधाई|
शाम   ढले इस सूने घर    में मेला  लगता है,
पर तेरे बिन दिल का कमरा  सू्ना लगता है

देख तुझे मेरा दिल बेश धड़कता है हमदम,,
गो तेरा मेरा सदियों का रिश्ता लगता है।

आज वफ़ा भी हवस की छत पर सज के बैठी है,
 इसको हासिल करने  ज़ेब में पैसा लगता है।

जब से मेरे माथ मुहब्बत का रंग चढा है,
तब से आखों को, पत्थर भी शीशा लगता है।

कल मजबूरों पर रौब जमाते थे,आज किसी
ने तुम पर रौब जमाया तो कैसा लगता है।

मुश्किल है अब अच्छों की पहचान ज़माने में,
हर चेहरे के आगे अब इक चेहरा लगता है।

 मर्द सिपाही का सरहद से नाता टूटा जब
तब से सांसों का लेना भी बोझा लगता है।

तारीफ़ किसी की करने में दिल का धन लुटता,
बदनाम किसी को करने में ढेला लगता है।

कीचड़  के अस्त्र, तवायफ़ की ज़ुबां सी चाल चलें,
अपने कपड़ों में भी अक्सर मैला लगता है।

काशी व प्रयाग ,अमीर पसंद ख़ुदाओं वाले,
इस दरवेश को अपना शहर ही क़ाबा लगता है।

दिल की ख़्वाहिश, राह तकूं  ताउम्र सितमगर की ,
तेरे  वादों का  झूठ   मुझे  प्यारा  लगता है।

सिगरेट शराब चिलम से दिल ऊब चुका  दानी
अब तो स्वादिष्ट मुझे बिहारी  खर्रा लगता है।

waah sanjay sahab waah...ek aur lajawab prastuti....bahut hi badhiya
धन्यवाद प्रीतम जी।

आज वफ़ा भी हवस की छत पर सज के बैठी है,
इसको हासिल करने  ज़ेब में पैसा लगता है।

 

वाह वाह संजय भईया , मजा आ गया , एक बार पुनः आपने बेहद खुबसूरत शे'रों  के साथ शिरकत किया है , 

 

दिल की ख़्वाहिश, राह तकूं  ताउम्र सितमगर की ,
तेरे  वादों का  झूठ   मुझे  प्यारा  लगता है।    वाह वाह , सबकुछ जान कर भी अपने को खुशफहमी में रखना , उम्द्दा कारीगरी ,

 

तारीफ़ किसी की करने में दिल का धन लुटता,
बदनाम किसी को करने में ढेला लगता है।  सच्ची बात भईया , इतना बुलंदी से अपनी बात कहना सबके बस की बात नहीं ,

 

बहुत बहुत बधाई इस बेहतरीन ग़ज़ल के लियें |

 

बहुत बहुत  धन्यवाद  गणेश भाई।

सिगरेट शराब चिलम से दिल ऊब चुका  दानी
अब तो स्वादिष्ट मुझे बिहारी  खर्रा लगता है।

 

): ):

शुक्रिया हरकीरत जी।

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय सौरभ सर, गाली की रदीफ और ये काफिया। क्या ही खूब ग़ज़ल कही है। इस शानदार प्रस्तुति हेतु…"
9 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .इसरार

दोहा पंचक. . . .  इसरारलब से लब का फासला, दिल को नहीं कबूल ।उल्फत में चलते नहीं, अश्कों भरे उसूल…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। आयोजन में सहभागिता को प्राथमिकता देते…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरना जी इस भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। प्रदत्त विषय को सार्थक करती बहुत…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त विषय अनुरूप इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। गीत के स्थायी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरनाजी, आपकी भाव-विह्वल करती प्रस्तुति ने नम कर दिया. यह सच है, संततियों की अस्मिता…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आधुनिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में माता के दायित्व और उसके ममत्व का बखान प्रस्तुत रचना में ऊभर करा…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय मिथिलेश भाई, पटल के आयोजनों में आपकी शारद सहभागिता सदा ही प्रभावी हुआ करती…"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ   .... बताओ नतुम कहाँ होमाँ दीवारों मेंस्याह रातों मेंअकेली बातों मेंआंसूओं…"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ की नहीं धरा कोई तुलना है  माँ तो माँ है, देवी होती है ! माँ जननी है सब कुछ देती…"
Saturday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय विमलेश वामनकर साहब,  आपके गीत का मुखड़ा या कहूँ, स्थायी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका,…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service