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मेरे भीतर की नदी ( कविता)

कल कल बहती है नदी
मेरे भीतर भी कहीं

सूर्य की तपिश में
गर्म होती है ऊपरी सतह

चाँदनी रातों में चमक जाती है
श्वेत तारों को आग़ोश में लिए हुए

सावन में हरित होती मिट्टी
सिमट जाती हैं मुझमें कभी

फिसलती रेत कभी जम जाती है
पर बहता है जल प्रवाह

निरंतर कभी ऊचें पर्वतों से
कभी निचली सतह पर अपनी गति से

ज़मीन पर से देखती है आसमां को
अपने में बहुत कुछ समेटे हुए

छोटे कंकड़ , बड़ी चट्टानें
छोटे मुलायम पौधे ,अनेको जलजर

जो विचरते है यहाँ से वहां
भावनाओ का चोला ओढ़े

कभी उमड़ घुमड़ कर बादलों की तरह
कर देती बौछार,कभी अपने में ही

खींच लेती है अपनी तरफ़ आयी
विपदाओं से लड़ती है

कभी बाढ़ बन बहा देती है
हर मुश्किल को


टकराती है किनारे से लहरे
फिर लौट आती है वहीँ

उन्ही लहरों में अपने अस्तित्व के साथ
अपने लिए राह तलाशती

विलीन होने को उसके लिए
बने हुए सागर में ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 7:05pm

धन्यवाद् आदरणीय महेंद्र कुमार जी | 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 7:04pm

धन्यवाद् आदरणीय श्याम नारायण जी | 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 7:04pm

धन्यवाद आदरणीय बृजेश कुमार ' ब्रिज' जी |

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 7:02pm

धन्यवाद् आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब | 

Comment by Mahendra Kumar on June 5, 2017 at 7:45pm

बहुत बढ़िया कविता है आ. कल्पना जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by Shyam Narain Verma on June 3, 2017 at 12:31pm
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 3, 2017 at 10:00am
वाह आदरणीया बहुत ही उत्तम सृजन.. हार्दिक बधाई
Comment by Mohammed Arif on June 3, 2017 at 9:42am
आदरणीया कल्पना भट्ट जी आदाब,बहुत ही बेहतरीन भावों की फुलवारी सजाई है आपने । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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