212 22 12 22122
शूलियों पर चढ़ चुकी सम्वेदनायें ।
बाप के कन्धों पे बेटे छटपटाएं ।।
लाश अपनों की उठाये फिर रहा है ।
दे रही सरकार कैसी यातनाएं ।।
है यही किस्मत में बस विषपान कर लें ।
दर्द की गहराइयां कैसे छुपाएँ ।।
सिर्फ खामोशी का हक अदने को हासिल ।
डूबती हैं रोज मानव चेतनाएं ।।
हम गरीबों का खुदा कोई कहाँ है ।
मुफलिसी पर हुक्मरां भी मुस्कुराएं।।
वो करेंगे जुर्म का अब फैसला क्या ।
जो नचाते सैफई में अप्सराएं ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन भाई , लाजवाब सामयिक गज़ल कही है , सभी अशआर बहुत खूब कहे हैं , दिले मुबारक बाद कुबूल कीजिये ।
है यही किस्मत में बस विषपान कर लें ।
दर्द की गहराइयां कैसे छुपाएँ ।। इस शे र पर एक गैर ज़रूरी सलाह है , अगर अच्छी लगे तो स्वीकार करें
डर यही है अश्क़ बाहर आ न जायें ।
दर्द की गहराइयां कैसे छुपाएँ ।। ये हुस्ने मतला हो जायेगा ।
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