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दोहे

जग से ईर्ष्या क्यों करें,क्यों हो कोई होड़
सबकी अपनी राह है,दौड़ें या दें छोड़।।

प्रेम-प्रीत की रीत से,जग को लेते जीत
ईर्ष्या व बुरी भावना, रखती है भयभीत।

जिसको कोई चाहता ,वह ही उसका मीत
स्नेह-प्रेम के जोर से,बने हार भी जीत।।

ठाले बैठे क्यों रहें, कर लें कुछ तो काम
ईर्ष्या जाती यूँ उपज,कर देती बदनाम।

सबकुछ उनके पास है,हम ही हैं कंगाल
बैठे खाली सोचते,कैसे आए माल।।

सोच-सोच कर मन मुआ,विचलित हुआ अपार
कर्म करें आगे बढ़ें,दें चिंता को मार।।

मन हो जाए बावरा,पाते हीे सम्मान
उसको रख लें थाम के,बनी रहे फिर शान।

------------
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 19, 2016 at 11:03pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी प्रोत्साहन के लिए सादर हार्दिक आभार।सादर नमन।आपका सुझाव अनुकरणीय है।सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 19, 2016 at 6:18pm

आदरणीय सतविन्द्र भाई , सुन्दर दोहावली के लिये आओअको हार्दिक बधाइयाँ ।

ईर्ष्या व बुरी भावना,    -- सही है  ,  लेकिन ऐसा करें तो ?  मन की हर दुर्भावना , रखती है भयभीत ,  सोच लीजियेगा , ज़रूरी नही है ।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 19, 2016 at 6:30am
प्रयास पर पुनः उपस्थित होकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी।गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभ कामनाएँ!सादर नमन!
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 19, 2016 at 6:28am
स्नेहिल प्रोत्साहन के लिए सादर हार्दिक आभार श्रद्धेय सौरभ पाण्डेय जी।चरैवेति-चरैवेति यही तो मन्त्र है अपना।प्रयास सतत ही है श्रद्धेय।गुरुपूर्णिमा के पवन अवसर पर सादर नमन!

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 19, 2016 at 1:01am

आदरणीय सतविन्द्र जी, आपका प्रयास रंग ला रहा है. आदरणीय अशोक जी के सुझाव पर आपने तुरत कार्यवाही की है, अतः हमें दोहे संयत हुए मिले हैं. वैसे भावों को शब्दों में पिरोने का अभ्यास अभी और प्रयास मांगता है. शुभेच्छाएँ 

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 18, 2016 at 10:58pm

सुंदर सुधार किया है भाई सतविन्द्र कुमार जी. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 18, 2016 at 10:49pm

आदरणीय सतविन्द्र जी, आपका प्रयास रंग ला रहा है. आदरणीय अशोक जी के सुझाव पर आपने तुरत कार्यवाही की है, अतः हमें दोहे संयत हुए मिले हैं. वैसे भावों को शब्दों में पिरोने का अभ्यास अभी और प्रयास मांगता है. शुभेच्छाएँ 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 18, 2016 at 8:52pm
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी।सादर नमन।परिष्कृत प्रयास का अवलोकन कर कृतार्थ करें।अनुमोदन,मार्गदर्शन के लिए आभार।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 18, 2016 at 6:08pm

आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी सादर, बहुत सुंदर दोहे रचे हैं.सतत प्रयास से और भी निखार आयेगा. इस सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. सादर.

प्रेम-प्रीत की रीत से,जग को लेते जीत
ईर्ष्या-द्वेष बुरी भावना, रखती है भयभीत।.......तृतीय चरण जांच लें.

उसपे ज्यादा हो गया,हम तो हैं कंगाल
बैठे खाली सोचते,हों क्यों मालामाल।।.........इस दोहे के कथ्य में अधूरापन खल रहा है.

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