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काली सड़क लाल खून से भीगकर कत्थई हो गई थी। एक तरफ से अल्ला हो अकबर के नारे लग रहे थे तो दूसरी तरफ जय श्रीराम गूँज रहा था। हाथ, पाँव, आँख, नाक, कान, गर्दन एक के बाद एक कट कट कर सड़क पर गिर रहे थे। सर विहीन धड़ छटपटा रहे थे। बगल की छत पर खड़ा एक आदमी जोर जोर से हँस रहा था।

एक एक कर जब सारे मुसलमानों के सर काट दिये गये तब बचे हुए दो चार हिन्दुओं की निगाह छत पर गई। वहाँ खड़ा आदमी अभी तक हँस रहा था। एक हिन्दू ने छलाँग मारकर खिड़की के छज्जे को पकड़ा और अपने शरीर को हाथों के दम पर उठाता हुआ कुछ ही क्षणों में छत पर पहुँच गया। छत पर खड़े आदमी की हँसी गायब हो गई। वो बोला, “मुझे क्यूँ मार रहे हो मैं तो नास्तिक हूँ।"

मारने वाले ने कहा, “तुझे इसलिए मार रहा हूँ क्यूँकि तू हम पर हँस रहा था।”

मरने वाला मरने से पहले इतना ही बोल सका, “हत्यारों को हत्या करने का बहाना चाहिए।”

----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 24, 2015 at 12:05pm

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, जब ’दिक्काल की प्रचलित समझ को दिमाग से निकालकर’ फेंकने के बाद का लिखा कुछ पढ़ेंगे तो उसी तर्ज़ पर कहना भी पड़ता है. प्रसन्नता की बात ये है कि इसे आप जैसे सर्वकाली खूब समझते हैं..  ;-))

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:43am
शुक्रिया आदरणीया प्राची जी। आपके कहे को मैं समझ रहा हूँ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:41am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:41am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय महर्षि जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:40am
शुक्रिया जनाब सलीम शेख़ साहब
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:39am
शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी। वैसे कभी कभी आपकी बातें आइनस्टान की सामान्य सापेक्षिकता की समीकरणों जैसी लगती हैं जिसे समझने के लिए दिक्काल की प्रचलित समझ को दिमाग से निकालकर फेंकना पड़ता है। :))
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:38am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय तेज वीर सिंह जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 24, 2015 at 11:36am
आदरणीय मनोज जी, साहित्य की रक्षा से आपका क्या अभिप्राय है।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 23, 2015 at 11:54pm

रोंगटे खड़े कर देने वाली वीभत्स प्रस्तुति...

क्या साम्प्रदायिक मसलों पर कलम को सचेत हो कर सम्हल कर नहीं चलना चाहिए. 

सम्प्रदाय कोई भी हो .... इस मानसिकता  को  बहाना ही चाहिए .. वजह तह तक तलाशते तो सब मसले सुलझ ही जाते

उम्मीद है कहे को समझेंगे 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 23, 2015 at 10:49am

आतंक वादी किसी भी कौम का हो उसका कोई दींन  ईमान धर्म  नहीं होता क्यूंकि उसमे इंसानी संवेदनाएं ही नहीं होती सच कहें तो वो इंसान ही नहीं होता बस चांडाल होता है जिसकी प्यास खून से ही बुझती है लघुकथा अपना सन्देश देने में सफल है |बहुत बहुत बधाई आ० धर्मेन्द्र जी |

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