सु्धीजनो !
दिनांक 18 जुलाई 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 51 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए तीन छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा, रोला और कुण्डलिया छन्द
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
जो प्रस्तुतियाँ प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करने में सक्षम नहीं थीं, उन प्रस्तुतियों को संकलन में स्थान नहीं मिला है.
फिर भी, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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1. आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी
दोहा-गीत [दोहा छन्द पर आधारित]
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सावन आया झूम के,
झटपट झूला डाल.
कोयल मन की कूकती, बैठी अमुआ डार
मेरे मन पर छा गया, बादल सा विस्तार
साँसों को महका रही,
गुम्फित मोंगर माल
आज घटा घनघोर है, सूरज भी है व्यस्त
आँचल को छोड़े नहीं, सर्द हवा मदमस्त
मौसम में दिल खो गया,
सुख भी हुआ निहाल.
बाबुल का आँगन नहीं, ना तुलसी चौबार
आँगन छूटा, ले गया, सावन की बौछार
झूला खोया, खो गया,
गोरी का मुख लाल.
जीवन जैसे झूलता, सुख दुःख लेकर साथ
इस झूले में झूल ले, मिल जाएँ रघुनाथ
उनका पाया साथ तो
भवसागर भी ताल.
पाँचों के जो मोह में, झूला बारम्बार
सावन ने सिखला दिया, क्या है पिय का प्यार
देख चमक आकाश की,
छूटा मायाजाल.
(संशोधित)
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2. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
दोहे - प्रथम प्रस्तुति
पेड़ों पर झूले पड़े, सावन मास बहार।
बारी बारी झूलना, कहती सखियाँ चार॥
झोंटे देती पैर से, तेज़ हो गई चाल।
अंग-अंग सब झूलते, दर्शक हुए निहाल॥
भीड़ बहुत है बाग में, सुंदर यह संयोग।
झूले का लेते मज़ा, जोश दिलाते लोग॥
यमुना के तट कृष्णजी, झूले राधा संग।
आज वही आनंद है, और वही है रंग॥
सजी फूल से वेणियाँ, लाल पीत परिधान।
हरियाली चहुँ ओर है, महक उठा उद्यान॥
झूम झूमकर झूलना, पुलकित सकल शरीर।
जाने कब मौका मिले, सखियाँ हुई अधीर॥
मौसम है मस्ती भरा, फँसी डोर में जान।
साथ चाहते झूलना, बूढ़े प्रौढ़ जवान॥
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3. आदरणीय श्री सुनीलजी
रोला छंद
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तू क्यों नाचे मोर!, बता क्यों खुश इतना है
है कारण बनफूल कि कारण घन उठना है
हम तो हैं खुश आज, हमारे पी आयेंगे
हिंडोले में झूल, झूल झूमर गाएंगे.
फबे पीत परिधान, हाथ में शोभे कंगन
अति आतुर ये नैन, हुए लगते हीं अंजन
इधर सखी तू आ न, थाम के ये अब चुनरी
तू गा दूँ मै ताल, उठा तो सुर में कजरी
बरस, गरज मत किन्तु ,काँप मैं जाऊँ भय से
सजन अभी हैं दूर, कहूँ तो क्या इस वय से
कह दे उनसे आज, अभी आया है यौवन
छेड़े बादल वायु,देख के छू के ये तन.
(संशोधित)
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4. सौरभ पाण्डॆय
झूला-गीत [रोला छन्द आधारित]
चपला चंचल चौंक चमकती
मन दहकाये..
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !
कोरे मन को फाँस रहा है जादू काला
पीली चुनरी ओढ़, हुआ अहसास निराला
तू अपने रख और रखूँ मैं अपने गहने
सौ चाभी का तोड़, लगा हर तन को ताला
लेकिन ये भी चाह..
कहीं से चोर समाये !
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !
दिन भर का खटराग, झूलना शाम-दुपहरी
मन की उभरी टीस, खींचती साँसें ठहरी
आँखों के ओ मेघ ! बरस मत, भले घुमड़ ले !
सखी-सहेली ताड़ न लें जो दिल में गहरी
पर ये गहरी फाँस,
समझ क्या प्रीतम पाये.. ?
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !
छलके छतिया छोह नेह से भर-भर आती
’धधक रही है प्रीत’, बताती, फिर शरमाती
’खतम करो मलमास देह के शंख बजाकर..
प्रिय बाँचो सुख-सार’ - सोच नस-नस उफनाती
संगम का सुख-भास
गंग से जमुन मिलाये
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !
टपक रही हर बूँद, आह से जोड़े नाता
दिन रखता है व्यस्त, भुलावे में बहलाता
लेकिन होती रात, बेधती हवा निगोड़ी
यादों का उत्पात, चिढ़ाता और रुलाता
निर्मोही की याद सताये
पीर बढ़ाये..
ले दहका मन-देह, झूल जा पेंग चढ़ाये !
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कुण्डलिया
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बदली, झींसी, नम-हवा, सुखकर कजरी-बोल
झूला औ’ उल्लास में रिश्ता है अनमोल
रिश्ता है अनमोल, किलकती सखियाँ झूलें
गुनगुन का उद्भास - बोल से कलियाँ फूलें
गाती झूला-गीत, उचक झूले पर लद ली
भीगी क्या इस बार, ’सँवरकी’ पूरी बदली !
लगातार घन धौंकते, विरही मन में आग
झूला कजरी बूँद से लेता पाठ सुहाग
लेता पाठ सुहाग - अकेले कैसे सहना
साजन हो जब दूर, निभाना, संयत रहना
हँसी-ठिठोली-खेल, हवा में दर्द उड़ाता
सखियों का ले साथ, झूलता पेंग लगाता
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दोहे
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झूला झूले रागिनी, लहर-लहर में राग
बाहर जितना आर्द्र तन, भीतर उतनी आग
सज-धज झूलें लड़कियाँ, यौवन नव उत्साह
लगा सुनामी आ गयी, छोड़ समन्दर राह
संप्रेषण भी आजकल, हुए क्रिस्प औ’ फ़ास्ट
जो भी गुजरा कह रहा - ’झूले पर बम-ब्लास्ट’ !
जा निर्मोही भूल जा, मत कर मुझको कॉल
तू भी निकले जब कभी, बन्द मिले हर मॉल !!
जब से सावन आ रहा, झूला-झूलन भूल
बचा झाँकियों के लिए महज़ ’वाउ’ या ’कूऽऽल’ !
तू झूली अब आ उतर, मत कर नम्बर गोल
हवा-हवा उड़ती हुई, सखियाँ करें किलोल !!
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5. आदरणीया डॉ. नीरज शर्मा जी
प्रथम प्रस्तुति
कुण्डलिया
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उमड़-घुमड़ कर छा गई, श्याम घटा घनघोर।
मधुर मिलन रितु आ गई, बगिया में चहुं ओर॥
बगिया में चहुं ओर ,पपीहा कोयल बोलें।
भंवरे दादुर मोर, कान में मधुरस घोलें॥
सावन रंग-तरंग, उमंग हृदय में भरकर।
बदरा जी हुलसाय , सभी का उमड़-घुमड़ कर॥
घायल मन को ज्यूं मिला, सावन भीगा प्यार।
गली गली में मन रहा, तीजों का त्यौहार॥
तीजों का त्यौहार, पड़े अमुआ पे झूले।
सखियां गातीं गीत, झूलतीं सुध-बुध भूले॥
कर सोलह सिंगार, चलीं छनकातीं पायल।
देख सलौना रूप पिया हो जाएं घायल॥
भूले सुध –बुध मन कभी, लेकर तेरा नाम।
लगे थिरकने ताल पर, भूले सारे काम॥
भूले सारे काम, चुनरिया उड़-उड़ जाए।
चल साजन के देस, कहे जियरा भरमाए॥
विरह अगन झुलसाय, कहीं तन –मन ना छूले।
काम बना है सौत , सजन सावन को भूले॥
द्वितीय प्रस्तुति
दोहे
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घनन घनन कर बादरा , शोर न कर नभ माहिं।
तहां, जहां साजन बसे , जमकर बरसो जाहिं॥
लपट झपट तन बावरा , निरखत संझा धूप।
चटक मटक मुख सहज ही, निखरत तन्वी रूप॥
पीत रक्त पट ओढ़ि तन , पेंग चढ़ाएं नार।
झूलत कटि तनु खांहिं बल ,लचकत यौवन भार॥
सुभग कमल दल ताल में , सुरभित मलय समीर।
वंशी धुन सुन कुंज में , राधे होत अधीर॥
पटह ध्वनि गुंजत रही , गमक रहे पकवान।
ललच रहे ललना ललन , खाय करें गुनगान॥
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6. आदरणीय गिरिराज भण्डारीजी
सात दोहे
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मन गदगद फिर से हुआ , अमराई को देख
परंपरायें लिख रहीं , फिर से सुन्दर लेख
परम्परायें देश की , लगती हैं बे जोड़.
सावन झूला झूलने की कितनी है होड़.
फिर पेड़ों पर बन गया, देखो झूला एक
झूल रहीं कुछ लड़कियाँ, परिधानों में नेक
फँसी हुई कुछ चाह है , परिधानों के संग.
उस पर बरखा दुष्ट ये , गाढ़ा कर दे रंग
हिय में उठती प्यास भी, ऊपर उठती जाय
पर झूले के साथ में ,नीचे कभी न आय
सकुचाती साहस भरी , झूल रही है नार
जगह बनी दो की मगर,झूल रहीं है चार
भीड़ तालियाँ पीटती, बढ़ा रही उत्साह
उनको भी मौका मिले, मन में रख कर चाह
(संशोधित)
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7. आदरणीय प्रदीप सिंह कुशवाहाजी
दोहे
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झूल झूल सखि गा रहीं, किशन बजावत झाल।
राधा रानी दे रही, ढोलक पर सुर ताल ।।
बदरा धरती छू रहे, मदन भये बेहाल ।
कोयल गाना गा रही, कजरी करे कमाल ।।
गुइयाँ छिपके तक रहीं , आवत मोहे लाज
बदरा का घूंघट करूँ, छुपे न फिर भी राज ।।
पीली पीली साड़ियां, चुनरी सबकी लाल ।
घेरे सब सखियाँ खड़ीं, पिया बजावत गाल । ।
सुन सखि सावन आ गया, डारो झूला आज ।
पैंग मार हम उड़ चले, पिया बजाएं साज ।।
बादल भी सब उड़ चले, पिया न आये पास।
खुशियाली तो हर जगह, मनवा मोर उदास । ।
(संशोधित)
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8. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लड़ीवालाजी
सावन का गीत
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मुखड़ा - सखियाँ झूला झूलती,
होकर हृदय विभोर
पड़ी फुहारें देखकर, नाचें मन का मोर
बागों में झूलें डलें, धूम मची चहुँ ओर |
शीतल मंद बयार में,
लेता हृदय हिलोर |
खन-खन खनके चूडियाँ, दिशि दिशि गूंजें शोर
मनवा डोले झूमते भीग रहे दृग कोर |
छायी है खुशियाँ यहाँ,
किलकाते चहुँ ओर |
सावन के झूले करे, कुदरत का संकेत,
आगे पीछे झूलते, धूप-छाँव सम देत |
कुदरत भी रस घोलती,
नाचें मन का मोर |
साजन आयें लौटकर, देखे गाल गुलाब,
चन्द्रमुखी मृगलोचनी, तेरा नहीं जवाब |
सावन तेरी आँख में,
चंचल चित्त चकोर |
सावन ऋतू आई प्रियें, रिमझिम पड़ें फुहार,
पवन देव की बांसुरी, गाये मेघ मल्हार |
रंग बिरंगी ओढनी,
लिए प्रीत की भोर
सखियाँ गाती झूलना, कोयलियाँ री तान
मचकाती सब झूलती, बाबुल की मुस्कान |
लेती है अंगडाइयां,
मन में उठे हिलोर |
करती खूब कलोल (दोहे)
सावन की बौछार में, भीगा है संसार
झूलाझूले सब सखी, सुने मेघ मल्हार |
सजधज सखियाँ आ रही,कर सोलह शृंगार,
सावन की बौछार में, मने तीज त्यौहार |
मचकाती झूले सदा, करती खूब कलोल,
साजन आते याद है,सुन पक्षी के बोल |
बूंद बूंद बरसा रही, कुदरत करे कलोल,
सावन की बौछार में, भीगे खूब कपोल |
बदरा करते है कभी, सावन की बौछार,
चमकाती बिजुरी कभी, सखियों का शृंगार |
चंद्रमुखी मृगलोचनी, तेरा नहीं जवाब
सावन के बौछार में, देखे गाल गुलाब |
कुण्डलिया
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झूला झूले सब सखी, कर सोलह शृंगार,
पावस ऋतु आते सभी, तीजों के त्यौहार
तीजो के त्यौहार, सुहागिन सभी मनाती
कुदरत भी माहौल, सदा खुशनुमा बनाती
कह लक्ष्मण कविराय, ईश को मानव भूला,
करे प्रकृति से प्यार, तभी खुशियों का झूला |
(2)
अमुआ तेरे बाग़ में, खुशियों की बौछार,
झूला डाले डार पर, उमड़ रहा है प्यार |
उमड़ रहा है प्यार, झूलने सखियाँ आती
बारिश की बौछार, सभी का तन महकाती
कह लक्ष्मण कविराय,हवा जब बहती पछुआ
झूला देते डाल, डार पर तेरी अमुआ |
(संशोधित)
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9. आदरणीय सुशील सरनाजी
दोहा छंद (सावन)
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१
सावन के घन देख के, नाचा मन का मोर
हर्षित मन करने लगा ,पिया मिलन का शोर
२
बूंदों की बजने लगी, पायलिया हर ओर
पी दरस को तरस गया,नैनों का हर कोर
३
मेघ मिलें जब मेघ से, शोर करें घनघोर
प्रेम गीत बजने लगें, सृष्टि में चहुँ ओर .......... (सशोधित)
४
सावन की बौछार में , झूला झूले नार
नयनों की होने लगी , नयनों से ही रार
५
भीगी बारिश में धरा , मिटा जेठ का ताप
घूंघट में लज्जा बढ़ी , नैन करें उत्पात
६
सुर्ख कपोलों पर रुकी,बारिश की इक बूँद
वो सपनों में खो गयी , अपनी आँखें मूँद
कुण्डलिया :
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हर मौसम से है बड़ा ,सावन मस्त महान
झूलों में झूलन लगें, यौवन के दीवान
यौवन के दीवान ,लाज सब तज के आये
नखरेली हर नार , प्रीत की पैंग बढ़ाये
पहन पीत परिधान, हर्ष में झूलें निडर
तृषा मिटायें नयन ,हसीं है मौसम अब हर
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10. आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवजी
दोहा गीत
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भीगा सावन आ गया
उठी घटा घनघोर
पेड़ों पर झूले पड़े
झूलें नवला नार
अम्बर से करता जलद
जल की रस-बौछार
रह-रह कर है नाचता
वन का मन का मोर
पुरवा की मातल हवा
उर को देती चीर
और कसकती देह में
आज पुरानी पीर
हवा खेलती वारि से
जल नूपुर का शोर
चार सहेली झूलती
रक्त-पीत पट धार
पेंग बढ़ाती शून्य में
है स्वच्छन्द विहार
सहमा सिमटा मौन है
आकुल भीत चकोर
झूले की प्रतियोगिता
झूले का संसार
जिसकी जितनी पेंग है
उतना ही व्यापार
सुध-बुध खोकर देखता
मानव आत्म-विभोर
हवा थमेगी एक दिन
बीतेगी बरसात
झूला जायेगा उतर
रह जायेगी बात
स्वप्न सरीखा है जगत
शाश्वत नही हिलोर
रोला छन्द
=========
बहती मस्त बयार झूमती तरु की काया
लेकर मन्मथ मार विहंसता सावन आया
झूले पर हैं नार लाल -पीली है सारी
यौवन मद का भार देखती दुनिया न्यारी
पेंग बढ़ाती एक लहर उठती है प्यारी
उड़ते हैं परिधान फहर उठती है सारी
यौवन का उल्लास दूर अम्बर तक फैला
सोलहवां है साल वपुष हो रहा विषैला
आया सावन मास गंध अपनी बिखराये
लम्पट बन परिहास मुग्ध मन को बौराये
आता है प्रति वर्ष धरा पर सावन प्यारा
जन मानस संतप्त झूम उठता है सारा
कुण्डलिया
=========
आया सावन डाल पर झूले का आनन्द
बिखर गया है वात मे जीवन का मकरंद
जीवन का मकरंद चार तरुणी मतवारी
गाती सावन गीत उर्ध्व की है तैयारी
प्रकट हुआ उल्लास अहो यौवन की माया
पीड़ा मन्मथ-मार साथ मे लेकर आया
(संशोधित )
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11 आदरणीय सचिन देव जी
दोहे
===
आते ही सावन पड़ा, झूला अमुआ डाल
झूला झूलें गोरियां, उड़ें हवा में बाल II 1 II
देख सखी छूटे नहीं, तेरा –मेरा हाथ
पेंग बढाऊं जोर से, देना मेरा साथ II 2 II
मत पड़ जाना हे सखी, अबकी तू कमजोर
झूले को लेकर चलें, परम शिखर की ओर II 3 II
झूला ऊपर जब चले, मन में मचे उमंग
आता नीचे तो उठे, मीठी एक तरंग II 4 II
आज सहेली छेड़ दे, ऐसा सावन गीत
झूम-झूम बरसे घटा, आन मिले मनमीत II 5 II
झूला झूलो जोर से, लेकिन रखना ध्यान
टूटे जो हड्डी कहीं, शादी में व्यवधान II 6 II
झूल सकें झूला अगर, आप शाम के शाम
मिले अनोखा सुख रहे, जोड़ों में आराम II 7 II
आज यहाँ इस मंच ने, उगले सावन गीत
नजर नही आती मगर, झूलों की अब रीत II 8 II
(संशोधित )
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12. आदरणीय विनय कुमार सिंहजी
कुण्डलियाँ छन्द
==================
सावन आया देख के , उठा जो मन में वेग
चारो सखियाँ मिल गयीं , लगी लगाने पेंग
लगी लगाने पेंग , छुईं जब पेंड़ की डारी
चलने लगी समीर तभी कस के मतवारी
हर्षित हुआ किसान देख के मौसम प्यारा
लगने लगा नवीन उन्हें ये जग अब सारा
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13. आदरणीय रमेश कुमार चौहानजी
दोहा-गीत
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रेशम की इक डोर से, बांधे अमुवा डार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।
सरर सरर झूला चले, उड़ती आॅचल कोर ।
अंग अंग उमंग भरे, पुरवाही चितचोर ।।
रोम रोम आनंद भरे, खुशियां लिये हजार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।
नव नवेली बेटियां, फिर आई है गांव ।
वही बाबूल का द्वार है, वही आम का छांव ।।
छोरी सब इस गांव की, बांट रहीं हैं प्यार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।
सावन पावन मास है, धरती दिये सजाय ।
हरियाली चहुॅ ओर है, सबके मन को भाय ।।
सावन झूला देखने, लोगों की भरमार ।
सावन झूला झूलती, संग सहेली चार ।।
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14. आदरणीया राजेश कुमारीजी
कुण्डलिया छंद
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सखियाँ झूला झूलती ,मिलकर देखो चार|
तीजो के त्यौहार में ,करके नव सिंगार||
करके नव सिंगार ,पहन परिधान सजीला|
सजे किनारी लाल ,रंग साड़ी का पीला||
गजरा पहने श्वेत ,श्याम कजरारी अखियाँ|
बढ़ा रही दो पेंग ,साथ बैठी दो सखियाँ||
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15. आदरणीय अशोक कुमार रक्तालेजी
दोहा-गीत
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सावन के झूले बँधे, लगी चहकने डाल
झूल रही सखियाँ मगन,
ऐसी पड़ी फुहार
अमुवा पे यौवन चढ़ा,
निखर गया शृंगार
तन लेता अँगड़ाइयां, कहता दिल का हाल
सुधियों की सौंधी महक,
अंग रही है चूम
हिरणी बन नर्तन करे,
मन मतवाला झूम
लहरा कर चलती पवन, पात दे रहे ताल
कहे महावर से छनक,
पायल की झंकार
आज बुला मनमीत को,
लूँ झौंके दो चार
सुनकर लट व्याकुल हुई, चूम रही है गाल
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16. आदरणीय अरुण कुमार निगमजी
सावन आया याद (रोला गीत)
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देख पुराना चित्र, पिया ! भर अँखियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||
वह अमुवा की डाल, और सावन के झूले
मस्ती वाली पेंग, भुलाये से ना भूले
नवयौवन का भार, लचकती हुई कमरिया
फिसल गई बन मीन, अचानक कहाँ उमरिया
देख घटा मशरूम सरीखी स्मृतियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||
वह सोलह सिंगार और वेणी का गजरा
झुमका सूता हार, मेंहदी माहुर कजरा
खनखन चूड़ी हाथ,, कमर कसती करधनिया
बिंदिया चमके माथ, पाँव बिछिया पैंजनिया
हौले - हौले कान कही कुछ बतियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||
अब सावन कंजूस, बाँटता बूँदें गिनगिन
आवारा हैं मेघ, ठहरते हैं बस दो दिन
लुप्त हो रहे मोर, कटीं अमुवा की डालें
दूषित पर्यावरण, कर रहा नित हड़तालें
ले उन्नति का नाम, सिर्फ अवनतियाँ आईं
सावन आया याद, याद कुछ सखियाँ आईं ||
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17. आदरणीय सत्यनारायण सिंहजी
कुण्डलिया
=======
झूले सावन के पडे, रिमझिम पडे फुहार|
देखो झूला झूलती, ललनाएँ मिल चार||
ललनाएँ मिल चार, गीत सावन के गातीं|
पहन चुनरिया पीत, मीत मन प्रीत जगातीं||
छबि सजनी अति रम्य, देख साजन सुधि भूले|
झूल गयी पिय बांह, मनस सावन के झूले||
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Tags:
खूब खिला बनफूल कि कारण घन उठना है
या
है कारण बनफूल कि कारण घन उठना है
//’गुरु-लघु’ से विषम चरणान्त की अनिवार्यता//
आदरणीय सुनील भाई जी, अनुमोदन हेतु आभार.
एक निवेदन है आदरणीय सौरभ सर की प्रतिक्रिया को दो तीन बार पढ़ जाया कीजिये जिससे कई कई जानकारियां और ज्ञान निकलकर आता है, कई कई सूत्र वाक्यों में यहाँ पल्लवन भी लाभकारी है. इसका बहुत लाभ होता है मेरा व्यक्तिगत अनुभव है सादर
जय-जय ..
आदरणीय श्री सुनीलजी, सर्वप्रथम क्षमा, कि मैं आपके कहे का मर्म ही नहीं समझ पाया था. आपने प्रदत्त चरण के भाव जानने की बात की थी और मैं उसकी मात्रिकता में उलझा हुआ था. खैर..
उक्त पद के सम चरण में न तू, न ये , बल्कि भाव के अनुसार मेरी समझ जो पर रुक रही है.
कारण कि, तू पहना है, व्याकरण की दृष्टि से बहुत सही वाक्यांश नहीं बनाता. तू के साथ कर्ता के ने का आना उचित होगा. ये भी सही और सटीक स्थानापन्न नहीं प्रतीत होता, कि, उक्त नूपुर का कोई पूर्व वर्णन नहीं है. अतः कवि का इंगित जो के माध्यम से अधिक स्पष्ट हो पायेगा, ऐसा मेरा मानना है.
लेकिन, नूपुर वह मोर किसी एक पाँव में तो पहनेगा नहीं. अतः एकवचन की क्रिया-समर्थित कोई वाक्य व्याकरण के दृष्टि से उचित नहीं होगा.
सही वाक्य हो जायेगा - नूपुर कैसे वाह ! पाँव में जो पहने हैं .. और इस वाक्य की आवश्यकता बनती नहीं.
एक सादर निवेदन :
छन्दों के मर्मज्ञ जैसे नाम मेरे लिए न लिया करें, आदरणीय. वर्ना अंग्रेज़ी के अनुसार वो कहावत प्रभावी होगी - आप मेरा नाम न पुकारें. (इस वाक्य का अंग्रेज़ी अनुवाद कर लीजियेगा.. हा हा हा.. )
हम सभी परस्पर सीख रहें हैं.
सादर
आदरणीय सौरभ सर जी, सर्वप्रथम ये निवेदन कि आप क्षमा न मांगें.
अभी - अभी आदरणीय मिथलेश वामनकर सर ने एक सुझाव दिया है "है कारण बनफूल कि कारण घन उठना है " ये पंक्ति मेरी मौलिक पंक्ति के बहुत करीब है इसलिये कृप्या इसे हीं प्रतिस्थापित कर दें. सादर.
तू क्यों नाचे मोर!, बता क्यों खुश इतना है
है कारण बनफूल कि कारण घन उठना है
हम तो हैं खुश आज, हमारे पी आयेंगे
हिंडोले में झूल, झूल झूमर गाएंगे.
फबे पीत परिधान, हाथ में शोभे कंगन
अति आतुर ये नैन, हुए लगते हीं अंजन
इधर सखी तू आ न, थाम के ये अब चुनरी
तू गा दूँ मै ताल, उठा तो सुर में कजरी
बरस, गरज मत किन्तु ,काँप मैं जाऊँ भय से
सजन अभी हैं दूर, कहूँ तो क्या इस वय से
कह दे उनसे आज, अभी आया है यौवन
छेड़े बादल वायु,देख के छू के ये तन.
तू क्यों नाचे मोर!, बता क्यों खुश इतना है
है कारण बनफूल कि कारण घन उठना है
हम तो हैं खुश आज, हमारे पी आयेंगे
हिंडोले में झूल, झूल झूमर गाएंगे... . . वाह वाह वाह ! क्या ही ललितभावपगा और प्रवहमान बन्द हुआ है !
बधाई हो..
आदरणीय, आपकी इस संशोधित रचना को मूल रचना से प्रतिस्थापित किया गया.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय सौरभ सर, व्याकरणिक त्रुटी को स्पष्ट करने किये आभार....
आप समझाते जहाँ भी है, लाभ मुझे मिल जाता है....
आदरणीय मिथिलेश भाई, आपकी रचनात्मक उत्सुकता, विधाओं की विभिन्नता को जानने की ललक, सीखने हेतु नैसर्गिक धैर्य तथा लगन एवं साहचर्य हेतु आवश्यक श्रद्धा आपको ऐसे ही सदा आग्रही बनाये रखे.
आपको पता न होगा, भाईजी, हमसभी आपसे जितना प्रभावित हैं और आपसे जितना कुछ सीख रहे हैं !
ना, यह स्वयं आपको मालूम न होगा.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ भाई , चित्र से काव्य तक आयोजन की सफलता के लिये आपको और सभी प्रतिभागियो को ढेरों बधाइयाँ । मै आयोजन मे उपस्थित न रह सका इसका दुख है मुझे , विस्तृत कारण कभी फोन पर बताउँगा । यह आयोजन मुझे आपेक्षाकृत अधिक सफल लगा है , प्रतिभागियों मे उत्साह भी कुछ अच्छा लगा और कुछ नये प्रतिभागी भी शामिल हुये हैं । मै सभी प्रतिभागियों को उनकी रचनाओं के लिये हार्दिक बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ ।
मेरी रचना पर आके उत्साह वर्धन करने के लिये सभी पाठकों का आभार मानता हूँ , और रचना पर आभार व्यक्त न कर पाने के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ ।
आपकी सलाह के अनुसार कुछ दोहों में सुधार किया हूँ , संकलन के दोहों से प्रतिस्थापित करने की कृपा करें ---
परम्परायें देश की , लगती हैं बे जोड़.
सावन झूला झूलने , की कितनी है होड़.
फिर पेड़ों पर बन गया , देखो झूला एक
झूल रहीं कुछ लड़कियाँ , परिधानों मे नेक
फँसी हुई कुछ चाह है , परिधानों के संग.
उस पर बरखा दुष्ट ये , गाढ़ा कर दे रंग
सादर निवेदन ॥
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