पीर पैरों की खड़ा होने नही देती मुझे
मेरी देहरी ही बड़ा होने नहीं देती मुझे
फिर वही आँगन की परिधि में बँट गया
किंतु सीमाएँ मेरी खोने नहीं देती मुझे
उधर पाबंदी ज़माने की हैं हँसनें पे मेरे
इधर दीवारें मेरी रोने नहीं देती मुझे
कर्म के ही हल सदा रखती है कंधें पर नियति
पर कभी फसलें मेरी , बोने नहीं देती मुझे
रोज़ सहता हूँ पराजय के अनेकों दंश फिर भी
ज़िद ये साँसों की "अजय" मरने नही देती मुझे
अजय कुमार शर्मा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अजय जी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीय भाई अजय जी इस सार्थक प्रयास के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीय अजय भावों के लिये बधाई एवं शुभकामनायें
उधर पाबंदी ज़माने की हैं हँसनें पे मेरे
इधर दीवारें मेरी रोने नहीं देती मुझे.......................बेहद उम्दा
खूबसूरत रचना के लिए बधाई
आदरणीय अजय भाई , बहुत बढ़िया बात कही है आपने । वाह
पीर पैरों की खड़ा होने नही देती मुझे
मेरी देहरी ही बड़ा होने नहीं देती मुझे - बधाइयाँ ।
आ. योगराज भाई जी की बात से सहमत हूँ , रचना गज़ल होते होते रह गई है ।
भाई अजय शर्मा जी, थोड़ी सी मेहनत से इस रचना को ग़ज़ल बनाया जा सकता था। मंच पर ग़ज़ल सम्बन्ध काफी जानकारी उपलब्ध भी है, उसका लाभ उठायें।
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