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है भुजंगो से भरा जग मानता हूँ - (गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122

************************
जिंदगी  का  नाम चलना, चल मुसाफिर
जैसे नदिया चल रही अविरल मुसाफिर /1
***
दे  न  पायें  शूल  पथ  के  अश्रु  तुझको
जब है चलना, मुस्कुराकर चल मुसाफिर /2
**
फिक्र मत कर खोज लेंगे पाँव खुद ही
हर कठिन होते सफर का हल मुसाफिर /3
**
मानता  हूँ  आचरण  हो  यूँ  सरल पर
राह में मुश्किल खड़ी तो, छल मुसाफिर /4
**
रात  का  आँचल  जो फैला है गगन तक
इस तमस में दीप बनकर जल मुसाफिर /5
**
है  अकेलापन अभी तो दुख किसे है
साथ  राहों में मिलेगा कल मुसाफिर /6
**
झूठ  का  माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर /7
**
है  भुजंगो  से  भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर /8
**
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’


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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:12pm

आदरणीय कल्पना दी गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:12pm

आदरणीय भाई आशुतोष जी गजल पर आपकी प्रतिक्रिया से जो उत्साहवर्धन हुआ है उसके लिए हर्दिक आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:11pm

आदरणीय भाई खुर्शीद जी, गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:11pm

आदरणीय भाईजितेंद्र जी, गजल पर आपकी उपस्थिति से जो मान बढ़ा है उसके लिए हार्दिक आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:11pm

आदरणीय भाई विजय शंकर जी,गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:10pm

आदरणीया बहन राजेश जी, गजल की प्रशंसा और स्नेहाशीष के लिए हार्दिक आभार ।

Comment by कल्पना रामानी on October 1, 2014 at 6:08pm

अत्यंत सुंदर गजल, हर शेर लाजवाब! बहुत बहुत बधाई आदरणीय लक्षमण  जी

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 29, 2014 at 11:24am

रात  का  आँचल  जो फैला है गगन तक
इस तमस में दीप बनकर जल मुसाफिर /5
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झूठ  का  माना यहाँ पर व्यूह टेढ़ा
साथ तेरे सत्य का हो बल मुसाफिर /7
**
है  भुजंगो  से  भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर /8

आदरणीय लक्ष्मण जी ..बहुत ही शानदार सन्देश देती हौसला बढ़ाती इस अच्छी ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधायी ..सादर 

Comment by khursheed khairadi on September 29, 2014 at 8:25am

है  भुजंगो  से  भरा जग मानता हूँ
पर स्वयं को तू बना संदल मुसाफिर 

वा....ह क्या बानगी है मज़ा आ गया |आदरणीय धामी साहब ,सादर अभिनन्दन 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 28, 2014 at 11:08pm

वाह! बहुत बहुत बहुत शानदार शेर कहे है आपने आदरणीय लक्ष्मण जी. हर शेर की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है. सच! पढ़कर बहुत अच्छी लगी आपकी गजल, तहे दिल से ढेरों बधाई आपको

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