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!!! बनो दिनमान से प्रियतम !!!

बनो दिनमान से प्रियतम,
नित्य ही नम रहे शबनम।।

उजाला हो गया जग में,
रंग से दंग हुर्इ सृष्टि।
लुभाता रूप यौवन तन,
गंध के संग हुर्इ वृष्टि।
समां भी हो गया सुन्दर, जलज-अलि का हुआ संगम।। 1

पतंगी डोर सी किरनें,
बढ़ी जाती दिशाओं में।
मधुर गाती रही चिडि़या,
नाचते मोर बागों में।
कल-कल ध्वनि करें नदिया, लहर पर नाव है संयम।। 2

किनारों पर बसी बस्ती,
सुबह औ शाम की मस्ती।
सितारों ने कहा जब से,
इशारों में मिलो रब से।
चांद भी झांकता छत पर, सुनाती चांदनी सरगम।। 3

सुखों का सार है सहना,
गहना क्रोध है दु:ख का।
उदासी छिप रही धन में,
ज्ञान को सोखती शंका।
मन क्रम बचन रहे सत से, राम का नाम लो हरदम।। 4

के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 7, 2014 at 7:26pm

आ0 सौरभ सर जी, शरदिन्दु सर जी व अन्नपूर्णा जी आप सभी का तहेदिल से बहुत-बहुत आभार।  मेरा मानना है कि किसी भी रचनाओं पर उनके प्रत्येक पहलुओं पर सार्थक विचार किया जाए। मुझे बेहद प्रसन्नता हुर्इ कि आपने अपनी अमूल्य टिप्पणियां अंकित कर मेरा मार्गदर्शन किया है। सादर, 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on February 7, 2014 at 12:46am
भाई केवल जी...यह क्या लिख दिया?!!!!!! आपकी अधिकांश रचनाओं को समझने लायक मेरी क्षमता नहीं है, इसीलिए उनपर टिप्पणी नहीं करता हूँ मैं आम तौर पर. लेकिन यहाँ, इस रचना पर सौरभ जी की टिप्पणी से सहमत हूँ पूर्णतया. आप बहुत समय से लिख रहे हैं और रचनाकर्म से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं बिना व्यवधान के. अत: अपेक्षित है कि आप जो भी लिख रहे हों उसके प्रति सजग रहेंगे, सचेत होंगे. "बधाई" किस बात की मेरे समझ में नहीं आता लेकिन शुभकामनाएँ अवश्य आपके साथ हैं हमेशा के लिए. सादर.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 6, 2014 at 5:49pm

अभी थोड़ी देर पहले आपका एक समृद्ध नवगीत पढ़ कर कुछ अधिक ही निहाल हो रहा था मैं. आपने पूर्ववत संतुलन में ला दिया.

मज़ा यह कि आप इस रचना पर वाह वाही भी खूब पा गये हैं. अब इस पर मैं क्या कहूँ ? सभी पाठक हैं. सबको अपने अनुसार रचनाओं को समझने और तदनुरूप मुग्ध होने का अधिकार है.

देखिये न,  दिनमान और शबनम में बिम्ब के हिसाब से ही नहीं, भौतिक रूप से भी छत्तीस का आँकड़ा हुआ करता है. फिर कोई प्रियतमा अपने वातावरण को नम बनाये रखने का आग्रह रखे, अपने प्रिय से दिनमान होने का अनुरोध कैसे कर सकती है ? दूसरे, रचना में प्रयुक्त शब्दों या अंतरों (बंदों) की तुकान्तता में भी तारतम्यता नहीं है, भाई.

बहरहाल, मेरी ओर से भी बधाई हो.

सादर

Comment by annapurna bajpai on February 6, 2014 at 1:31am

सुंदर रचना ,बधाई आपको आ0 केवल भाई जी । 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 5, 2014 at 8:34pm

आदरणीय  जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 5, 2014 at 8:33pm

आदरणीय कुन्ती मैम जी आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 4, 2014 at 10:57pm

सुखों का सार है सहना,
गहना क्रोध है दु:ख का।
उदासी छिप रही धन में,
ज्ञान को सोखती शंका।
मन क्रम बचन रहे सत से, राम का नाम लो हरदम।।.....सफल जीवन का मार्गदर्शन करती पंक्तियाँ , बहुत बहुत बधाई आदरणीय केवल जी

Comment by coontee mukerji on February 4, 2014 at 9:49pm

सुखों का सार है सहना,
गहना क्रोध है दु:ख का।
उदासी छिप रही धन में,
ज्ञान को सोखती शंका।
मन क्रम बचन रहे सत से, राम का नाम लो हरदम।। 4.......इतनी सुंदर रचना हेतु आपको अनेक बधाइयाँ.भाई केवल जी.

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