उमर भर साथ तू शामिल रही परछाइयों में,
सहा जाता नहीं है दर्द-ए-दिल तन्हाइयों में,
जरा सी बात पे रिश्ता दिलों का तोड़ते हैं,
उतर पाते नहीं जो प्यार की गहराइयों में,
भला इन्सान कोई दूर तक दिखता नहीं है,
बुराई घुल रही तेजी से है अच्छाइयों में,
जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,
जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,
निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,
गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों में....
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ सर जी हार्दिक आभार आपका भविष्य में ध्यान रखूँगा.
जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,
जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,
एक ईमानदार कोशिश हुई है, भाई अरुन अनन्त जी, बहुत बहुत बधाई.
वैसे, आप १२२२ १२२२ १२२२ १२२ को कह देते जिसके लिए अक्सर इस मंच से सभी ग़ज़लकारों से आग्रह किया जाता है तो नये प्रयासकर्ताओं को आपकी ग़ज़ल समझने में आसानी हो जाती.
पुनः बधाई
सुन्दर भाव समेटे गजल रचना के लिए बधाई श्री अरुण शर्मा "अनंत" जी
जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,
जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,
निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,
गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों में....
समसामयिक और बहुत बढ़िया गजल
भाई अरुण जी , आपकी गजल आज के समाज के व्यबहारिक पहलु को बखूबी दर्शा रही है , सुन्दर पंक्तियों के लिए बहुत बहुत बधाई
बहुत खुबसूरत यथार्थ को दर्शाती गजल
जीवन के यथार्थ को व्यक्त करती शानदार ग़ज़ल ..हार्दिक बधाई अरुण जी
ह्रदयतल से हार्दिक आभार आदरणीया महिमा श्री जी.
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