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मुक्तिका: है यही वाजिब... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।

रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?

घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।

चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।

आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।

*********

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 21, 2012 at 5:01pm

आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।

अब शिव कहाँ से लाएं 

गरल जिसे पिलायें 

बधाई सर जी.

Comment by sanjiv verma 'salil' on December 19, 2012 at 9:52am

लतीफ़ जी, सौरभ जी, संदीप जी, महिमा जी, राजेश जी, बागी जी, अजय जी, वीनस जी, लक्षमण जी, अशोक जी, अरुण जी
आप सबने रचना को सरह कर उत्साहवर्धन किया हार्दिक धन्यवाद.

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 17, 2012 at 9:02am

आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ बधाई स्वीकारें परम आदरणीय सलिल जी सादर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 7, 2012 at 12:05pm
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
 
हार्दिक बधाई आदरणीय सलिल साहेब, बहुत उम्दा रचना 
 
आपसे है यह अपेक्षा मौन न रहना सलिल 
है गुजारिश मेहरबां अब कुछ और देते जाइए ।
Comment by वीनस केसरी on December 7, 2012 at 3:20am

श्रेष्ठवर सलिल जी
बेहतरीन मुक्तिका के लिए बधाई स्वीकारें

Comment by ajay sharma on December 6, 2012 at 10:12pm

bahut hi achhi rachna ke liye badhayii


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 6, 2012 at 8:45pm

//आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए//

हंसकर जहर पीने के लिए तो भगवान नीलकंठ होना चाहिए , अच्छी मुक्तिका आचार्य जी, बधाई स्वीकार करें |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 6, 2012 at 7:32pm

आबे-जमजम  की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।----इन पंक्तियों से आदरणीय सलिल जी वो गाना याद आ गया अपने लिए जियें तो क्या जिए ऐसे कितने लोग हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं सब अपना सुख ही चाहते हैं ---बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ दूसरी ये भी बहुत पसंद आई --रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?-----सब जानते हैं फिर भी अपनी खुदगर्जी से बाज नहीं आते ।बहुत बहुत बधाई इस मुक्तिका के लिए 

Comment by MAHIMA SHREE on December 6, 2012 at 4:13pm

है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।

रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?...

बहुत ही खुबसूरत गहन अभिवयक्ति ..

मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय /

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 6, 2012 at 4:03pm

बेहद सुन्दर मुक्तिका कही सर जी बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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