मन क्षेत्र
आकाश सा विस्तृत...
आकांक्षाओं के बिंब ,
बन
भाव-बादल,
करते
कभी आहलादित
कभी विकृत
संपूर्ण अस्तित्व...
बदल बदल स्वरूप
बादल सम चंचल
अस्थिर भाव
कभी
लाते भंवर
तो कभी
करते तृप्त
अंतः मरुधर...
पर
आकाश
कब बाँध सका है
बादल की उड़ान को,
या
बादल कब छू सका है
अनंत के हर निशान को...
हर पल
अनछुआ है
अनंत अंबर
बड़े से बड़े
बादल की
उपस्थिति विकृति या विस्मृति से
निरंतर शांत
मन क्षेत्र
आकाश सा विस्तृत.....
Comment
क्षण विशेष को अभिसिंचित करने के लिए बधाई.. .
इस पर आज दृष्टि पड़ी.. . :-((
आदरणीय हरविंदर सिंह जी, राज नवादवी जी, कुमार गौरव जी, सतीश अग्निहोत्री जी, प्रदीप कुमार कुशवाहा जी, विजय निकोर जी... रचना मन क्षेत्र आप सबको पसंद आयी, और आपका उत्साहवर्धक अनुमोदन आशीष सम प्राप्त हुआ, इस हेतु आप सभी को हार्दिक आभार
सादर.
आज आपकी इस पुरानी कविता पर नज़र गई तो अभिभूत हुआ आपकी सोच से ...
आकाश
कब बाँध सका है
बादल की उड़ान को,
या
बादल कब छू सका है
अनंत के हर निशान को...
हर पल
अनछुआ है
अनछुआ शब्द अति प्रिय है।
साधुवाद!
विजय
बादल कब छू सका है
अनंत के हर निशान को...
कभी नहीं ..
बधाई सादर
मनमोहक रचना ....बधाई आपको
मन क्षेत्र
आकाश सा विस्तृत.....
sundar rachna......
मन क्षेत्र
आकाश सा विस्तृत...
आकांक्षाओं के बिंब ,
बन
भाव-बादल,
करते
कभी आहलादित
कभी विकृत..
-- सुन्दर लय ताल से बहते शब्द, झरने की निनाद से कभी निर्बाध, कभी चट्टानों से आलिंगित. बधाई हो प्राची जी!
Sunder ABhivyakti..
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