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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-१४ में शामिल सभी ग़ज़लें

(आचार्य श्री संजीव "सलिल" जी)

(१)
मेहरबानी हो रही है मेहरबान की.
हम मर गए तो फ़िक्र हुई उन्हें जान की..

अफवाह जो उडी उसी को मानते हैं सच.
खुद लेते नहीं खबर कभी अपने कान की..

चाहते हैं घर में रहे प्यार-मुहब्बत.
नफरत बना रहे हैं नींव निज मकान की..

खेती करोगे तो न घर में सो सकोगे तुम.
कुछ फ़िक्र करो अब मियाँ अपने मचान की..

मंदिर, मठों, मस्जिद में कहाँ पाओगे उसे?
उसको न रास आती है सोहबत दुकान की..

बादल जो गरजते हैं बरसते नहीं सलिल.
ज्यों शायरी जबां है किसी बेजुबान की.

(२)

ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
इसमें बसी है खुशबू जिगर के उफान की..
*
महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश. 
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..
*
उनको है फ़िक्र कलश की, हमको है नींव की.
हम रोटियों की चाह में वो पानदान की..
*
सड़कों पे दीनो-धर्म के दंगे जो कर रहे.
क्या फ़िक्र है उन्हें तनिक भी आसमान की?
*
नेता को पाठ एक सियासत ने यह दिया.
रहने न देना खैरियत तुम पायदान की.
*
इंसान की गुहार करें 'सलिल' अनसुनी.
क्यों कर उन्हें है याद आरती-अजान की..
(३)
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..

आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..

हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल लगाया निशानी प्यार के निशान की..

जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ अपनी आन की.

हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता.
यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की..

-------------------------------------------------------------

(श्री इमरान खान जी)

(१)

के बाइसे परवाज़, यही है जहान की,
ये शायरी ज़बाँ है किसी बेज़बान की।

हम लम्हों की ख्वाहिशें, बता ही नहीं पाये,
तरजुमान ये स्याही, अहवा ए ज़मान की।

हमने खेल दिलों के, खेले हैं प्यार से,
याँ कोई तलब नहीं तरकशो कमान की।

कल इकरार किया था, आज तोड़ दिया है,
है औकात भला क्या सियासी बयान की।

सर बारगाहे खुदा में 'इमरान' झुकाएँ,
आ रही हैं सदायें वहीं से अज़ान की।

(२)

नेअमत ये हमें है 'हक़े'* दो जहान की,
ये शायरी ज़बाँ है किसी बेज़बान की।

कम तोलने वालों छोड़ों इस ऐब को,
बरकत न चली जाए तुम्हारी दुकान की।

गुरबा के इसी में हकूक हैं शामिल,
जकात-फित्र* निकालो ज़ायद सामान की।

आओ के चलो अब हासिल करें सवाब,
कसरत से करें हम तिलावत कुरान की।

कमाई में शायद है सूद भी शामिल,
रूह भी नादिम है तुम्हारे मकान की।

या अल्लाह हमारे गुनाहों को बख्श दे,
क़दर ही न हो सकी रोज़ों की शान की।

रवाँ कर मिरे खुदा इस खूँ में रहम को,
मुहब्बत रहे क़ायम ये दौरे ज़मान की।

मोत्तर ये ज़मीं है लाल खूँ के रंग से,
हवा चले अब खुदा वो अम्नो अमान की।

(३)

कब गुफ्तगू ग़ुलाम है आवाज़ो कान की,
ये शायरी ज़बाँ है किसी बेज़बान की।

बाम में जो कुछ कही, सुनी ही नहीं मेरी
तंग दीद हो गई है सारे जहान की।

शैतान का है देखिये हर दिल में वसवसा,
क्यूँ रहमतें बरसेंगी यहाँ आसमान की।

लाखों जतन पर एक मुहब्बत न मिल सकी,
सुनसान ये क़बा है जिगर के मकान की।

एहसास में 'इमरान' रवाँ हो गये हैं यूँ,
पनाहगाह सीप है, के जैसे जुमान की।

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(श्री अम्बरीष श्रीवास्तव जी)

(१) 

पूजा हुई सदा है यहाँ बेईमान की.
यारों ये रस्म-रीति इसी खानदानकी,


अन्ना को आज भूखे हुआ रोज तेरवां,
सत्ता रही है खींच बली लेगी जान की. 


पत्ता नहीं हिला जो अभी है चली हवा,
सोंचो नहीं है आज जमीं आन-बान की. 

 

भाई जो देख आज मेरे साथ है नहीं.
यादों में भीगी आँख
लगे अम्मिजान की.


मेरे हुजूर आप भले मानिये नहीं,
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की.

(२)

कस्में जो खा रहे थे वो गीता-कुरान की,
आई है
यार आज घड़ी इम्तहान की.


आतंकियों को देख वहाँ कांप क्यों रहे.
साथी लगा दो आज तो बाजी ही जान की.  


लम्हे कहाँ है आज मेरे प्यार के लिए,
भाई जी
आज क़द्र नहीं कद्रदान की.


भादों की रात में जो यहाँ जोर की घटा,

कान्हा का जन्म आज खुशी है जहान की.


जुल्मों से ‘अम्बरीष’ सभी लोग क्यों डरे,     
ये शायरी ज़बां है किसी  बेज़बान की.

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(श्री अरविन्द चौधरी जी)


ये शायरी ज़ुबाँ  है किसी  बेज़ुबान की

मश्शाक को जरूरत क्या तर्जुमान की ?

जिस की तमाम उम्र कटी खारज़ार में ,
उसको ख़बर न थी अपने ही मकान की...

कितना ख़ुमार अज्म  परों में परिंद के !

कोई नहीं थकान नये फिर उड़ान की ...

पुख्ता सवाल लेकर दुनिया खडी रही

हम क्या कहें उन्हें खुशहाली जहान की !

आँखें झुकी झुकी  फिर कैसे सुने उन्हें ?

वो काम आँख तो करती है ज़ुबान की ...

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(श्री सौरभ पांडे जी)


जिसकी  रही  कभी नहीं आदत उड़ान की

अल्फ़ाज़ खूबियाँ कहें खुद उस ज़ुबान की


भोगा हुआ यथार्थ ग़र सुनाइये, सुनें

सपनों भरी ज़ुबानियाँ न दिल, न जान की..


जिसके खयाल हरतरफ़ परचम बने उड़ें
वो खा रहा समाज में इज़्ज़त-ईमान की ..

हर नाश से उबारता, भयमुक्त जो करे 

हर रामभक्त बोलता, "जै हनुमान की" !

  

जिनके कहे हज़ारहा बाहर निकल पड़े

ऐसी जवान ताव से चाहत कमान की ..


जबसे सुना कि शोर है अब इन्क़िलाब का
ये सोच खुश हुआ बढ़ी कमाई दुकान की.

तन्हा हुए दलान में चुपचाप सो गया  
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की. ..

*********************************************

(श्री संजय मिश्र हबीब जी)

(१)

संगे असास है ये रूहों ईमान की

ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.

 

इश्को मुहब्बत और चैनो सुकून लिए,

आतीं सदायें ज्यों मुकद्दस अज़ान की.

 

आया लिये जीस्त वस्ते तूफ़ान में

जाए जिधर भी, रजा है कश्तिबान की.

 

सितारे तमाम मुस्कुराते हैं घर में,

उसने तकदीर ही बदल दी मकान की.

 

ताकत अहिंसा की फिर से दिखा दी है,

बोलो 'हबीब' सारे जय हिन्दुस्तान की.

(२)

आओ अब नापें हदें आसमान की.

आओ यह वक़्त है लम्बे उड़ान की.

 

औबाश मुल्क बेच रहे हैं सुकून से,

जागो, कि वास्ता है वतन के शान की.

 

भागे चले हैं मशालें जो हाथ लिए,

जिम्मेदारी उन पर मेरे मकान की?

 

सारे जहां का गम खुद में समेटे सा,

ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.

 

मिटा दें अदावतें 'हबीब' आज दिल से,

इतनी तो कीमत बजा है इस्कान की.

-------------------------------------------------------

(श्रीमती बंदना गुप्ता जी)

 

ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
जैसे रहन रखी हो जमीन किसान की

यूँ तो रहते हैं घर में बहुत से परिंदे
पर फिक्र है किसे यहाँ अपने मकान की

यूँ तो ले के आ गए कश्ती तूफ़ान से
कौन करे अब निगेहबानी किसी की दुकान की

बंजारों का शोर सुन हो गए खामोश
कैसे खाएं कसमें अब अपने ईमान की

बदल गए हैं पैंतरे अब मुर्दों के यहाँ
कैसे करें अब ताजपोशी कब्रिस्तान की

तल्ख़ बातों को दिल पे ना लेना साहिबान
कीमत क्या है यहाँ हमारे बयान की 

किसके सजदे में सिर झुकाएं कौन है देवता
 सुनता है अब कौन यहाँ आयतें अज़ान की
------------------------------
--------------------

(श्री मुईन शम्सी जी)

अभिव्यक्ति है ये भावनाओं के उफान की
ये शायरी ज़बां है किसी बे-ज़बान की

है कल्पना के संग ये निर्बाध दौड़ती
चर्चा कभी सुनी नहीं इसकी थकान की

उड़ने लगे तो सातवां आकाश नाप दे
सीमा तो देखिये ज़रा इसकी उड़ान की

बनती कभी ये प्रेम व सौन्दर्य की कथा
कहती कभी है दास्तां तीरो-कमान की

मिलती है राष्ट्रभक्ति की चिंगारी को हवा
लेती है जब भी शक्ल ये एक देशगान की

समृद्ध इसने भाषा-ओ-साहित्य को किया
रक्षा भी की है शायरों-कवियों के मान की

’शमसी’ जहां में इसने कई क्रांतियां भी कीं
दुश्मन बनी है क्रूर नरेशों की जान की ।

(श्री अरुण कुमार पांडे "अभिनव" जी)

परवाह नहीं करते हैं खतरों में जान की ,

हम नाप लेते हैं ऊँचाई आसमान की |

 

जंगल कटे नदी पटी बसते गए शहर ,

अब कर रहे हो फ़िक्र बढ़ते तापमान की |

 

ऐसी भरी हुंकार की सरकार हिल गयी ,

तुलना नहीं किसी से भी अन्ना महान की |

 

शादी में खेत बिकते हैं गौने में गिरवी घर ,

मुश्किल से विदा होती है बेटी किसान की |

 

सीढ़ी पे  हैं भीखमंगे और तहखानों में कुछ लोग ,

पाली में राशि गिन रहे हैं प्राप्त दान की |

 

संसद में नोट के लिए बिकती हुई पीढी ,

नस्लों को क्या  खिलायेगी रोटी ईमान की |

 

सिस्टम की चूल चट गयीं रिश्वत की दीमकें ,

हम फ़िक्र करते रह गए अपने मचान की |

 

दुनिया तेरे बाज़ार में आकर यही जाना ,

पोथी में बंध के रह गयी हर बात ज्ञान की |

 

हिंदी में इसे पढ़िए या उर्दू  में गाइए ,

ये शायरी जुबां हैं किसी बेजुबान की |

------------------------------------------------------------------

(श्री सुरिंदर रत्ती जी)

कीमत बहुत है एक सही कहे बयान की,
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
 
अम्बर से आये हैं सब महरूम टूटे दिल,
बेचैन, बिखरे, नाखुश, आहट तुफान  की
 
सीरत अजीब शक्ल अजीबो ग़रीब है,
कैसे ज़हीन बात करे खानदान की
 
शम्सो-क़मर नहीं चलते साथ ना कभी,
दीदार चाहे बात न कर इस जहान की
 
सर पर कफ़न लिये बढ़ता है जवान वो,
परवाह है नहीं दुश्मन की न जान की
 
तस्कीन दे रहे सब "रत्ती" ज़माने में,
बचे कुछ तो सूखे शजर दौलत किसान की
--------------------------------------------------------
(श्री राकेश गुप्ता जी)

(१)
(अन्ना हजारे के अनशन पर)
राम लीला मैदान से, बहती हुई हवा,
आमद है यकीनन, एक नये तूफ़ान की.........

जागो, उठो, लडो, कि तुम्हे जीतना ही है,
फिजा में है गर्जना, एक नौजवान की........

लोकपाल पर जीत ये, तेरी नही मेरी नही,
सरकार पर जीत ये, है जीत हिन्दुस्तान की......

(बिखरते परिवारों पर)

गैरों से क्या शिकवा करूं, अपनों ने है ठगा,
मेरी जां ने ही लगाई कीमत मेरी जान की.........

कल तक जहाँ रहती थी, खुशियों की ही सदा,
सन्नाटे में गूंजती है चीख , उस मकान की........

(मजहब के ठेकेदारों पर)

मजहब, धर्म, जातियों में, बट के कल तलक,
हम लूटते रहे जान, मजदूर की किसान की ........

हैं कोशिशें उनकी की हम, फिर्कों में हों बंटे,
पर चल ना सकी दुकनदारी, उनकी दुकान की.......

दिल चीर कर दिखाने से, हासिल कहाँ है कुछ,
जो दिखी ना सच्चाई उन्हें, मेरे ब्यान की........

उनको खबर कहाँ कि, जो खामोश हो ज़बां,
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की........

(२)

सर पर कफन को बांधे बढ़ता हूँ मैं मगर,
चिंता कहाँ है उनको मेरी जान की.......


वो ज़ेब ही भरने में हर पल रहे मग्न,
मुझको सदा है चिंता मेरे भारत महान की.......


टाटा बढ़ेगा क्यूँकर रिलायंस को फायदा हो,
उन्हें फ़िक्र कहाँ मजदूर की किसान की .........


तोपों में हो घोटाला बेशक बुल्ट हो नकली
सरहद पे या कि घर में जान जाए जवान की .........


हिन्दू मरा या मुस्लिम इसकी फ़िक्र किसे है,
लाशों पे ही रखी है नीव मेरे मकान की .........


बेशक तेरे कहर से मेरी जबां बंधी है,
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की......

----------------------------------------------------------------------
(श्री वीनस केसरी जी)

बे-पर * जो, बालोपर * से, मुसल्सल * उड़ान की |

कीमत लगा दी आज तेरे आसमान की |

 

सोच इस कदर बिखर गई है नौजवान की |

सुनना पसंद ही नहीं करता सयान की |

 

अब बंद भी करो ये प्रथा 'बस बखान' * की |

हालत जरूर सुधरेगी हिन्दोस्तान की |

 

अशआर कर रहे हैं इशारों में गुफ़्तगू ,

'ये शाइरी जुबां है किसी बेजुबान की' |

 

वो दिन लदे, कि टूट बिखरते थे शान से,

अब आईने भी खैर मनाते हैं जान की |

 

हर बात से मुकरते हैं नेता जी इस तरह,

ज्यों परजुरी * भी हो गयी हो बात शान की |

 

जब वक्त आ गया तो इरादे बदल गए,

बातें तो हमसे करते थे दुनिया - जहान की |  

 ----------------------------------------------------

(श्री वीरेन्द्र जैन जी)

परवाह ही नहीं है मेरी इस उड़ान की,
नादानियाँ हैं ये मेरे दिल के गुमान ही.

जिसको झुका सकी न गरीबी भी बोझ से,
ये दास्ताँ सुनो जी उसी के ईमान की.

मिल ना सके थे लफ्ज़ जिसे दूर-दूर तक  ,
ये शायरी जबां है उसी बेजबान की .

मरते समय भी वो उसे इतना ही कह गयी,
कुछ फिक्र तो कर्रो मेरे बच्चों की जान की.
 
परदा हटा अगर जो तू चेहरे से नाज़नी,
खुशियाँ नज़र करूँ तुझे सारे जहान की.
---------------------------------------------------
(श्री आलोक सीतापुरी जी)

(1)

रहमत बरसनेवाली है अब आसमान की,

ये शायरी जबां  है किसी बेजबान की .

 

तेरह दिनों में अन्ना नें ऐसी उड़ान की,

हिम्मत बढी है हिंद के हर नौजवान की.

 

दरिया की बाढ़ ऐसी कि पानी कमर तलक,

इज्जत बढ़ा गयी है हमारा मकान की. 

 

मैं मैकदा समझ के चला था उधर मगर,

आवाज़ आ रही थी हरम से अज़ान की.

 

वो जैसे तैसे बन तो गया है अमीरे शह्र,

हाँ नाक कट रही है मगर खानदान की.

 

आतंकवाद फैला है दुनिया में हर तरफ,

बखिया उधड़ रही है मगर तालिबान की.

 

जिस दिल से निकलते हैं ये 'आलोक' के अशआर,

ये शायरी जबां है उसी बेजबान की.

 

दिल की जबां रखता है फिर क्यों कहे 'आलोक',

ये शायरी जबां है किसी बेजबान की.

(२)

 

धरती से उठ पतंग ने ऐसी उड़ान की,
समझी बुलंदी नाप चुकी आसमान की.

अब्बा को अपने खेत में दे आई रोटियां,
बेटों से तो अच्छी है ये बेटी किसान की.

सैकिल को तोड़ता हुआ हाथी गुजर गया.
बस इतनी कहानी रही नीले निशान की.

कश्मीर हमें प्यारा तो पंजाब दुलारा,
दोनों से आ रही सुगंध जाफ़रान की.

हक दोस्ती का तूने अदा खूब कर दिया,
अर्थी निकाल दी मेरे बहम ओ गुमान की.

हमने तो जो सुना था वही तुमसे कह दिया,
दुनिया से क्या कहें जो कच्ची है कान की.

उसको सलाम करने को 'आलोक' सर झुका,
अपने वतन की आन पे कुर्बान जान की.

 सैकिल (साइकिल)

-----------------------------------------------------------

(श्री शेषधर तिवारी जी)

मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की 

ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की

 

होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल 

मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की 

 

ढूँढा किये हैं ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में 

यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की 

 

जिसमे खिली हुई वो कली भा गयी मुझे   

करता हूँ मैं सताइश उसी फूलदान की           

 

धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से 

आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की 

 

जिसमे मुझे ही दफ्न किया चाहते थे वो  

उनको है फिक्र आज मेरे उस मकान की

 

खाते हैं जो खरीद के हर वक़्त रोटियाँ

होने लगी है फ़िक्र उन्हें भी किसान की

-------------------------------------------------

(श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी)     

 

गेहूँ की साँस में घुली खुशबू है धान की

ये शायरी जुबाँ है किसी बेजुबान की

 

बदलेगी ये फिजा मुझे विश्वास हो चला

लाशें जगीं हैं देख लो सारे मसान की

 

आखेटकों का हाल बुरा आज हो गया  

अब जाल बन गईं हैं लकड़ियाँ मचान की

 

कुछ बोर हो गई है ग़ज़ल होंठ आँख से

सब मिल के कीजिए जरा बातें किसान की

 

हाथों से आपके दवा मिलती रहे अगर

तो फिक्र कौन करता है ‘सज्जन’ निदान की

------------------------------------------------------

(डॉ ब्रिजेश त्रिपाठी जी)


मुकम्मल पाकीजगी है इसमें अजान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की

हशरत है कि अपना ये मुक़द्दस वतन रहे
जो गन्दगी है छोड़ कर जाये मकान की

अरसे के बाद आया बन के मसीहा कोई
दिखने लगी है खोई रौनक जहान की

उपवास से निकल के जोश-ए-जहान का
देने लगा दुहाई अन्ना के शान की

ईश्वर करे कि जीते फिर से वतन हमारा
फिर बंदगी हो अपने भारत महान की

 


 


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सुप्रभात, आदरणीय प्रधान सम्पादक जी, 

सभी गज़लें एक साथ .......वह भी त्वरित .......क्या बात है..............आनंद आ गया .....

इस कार्य हेतु आपको बहुत-बहुत बधाई  ..........जय ओ बी ओ !!!!!!!!!!

सादर आभार आदरणीय अम्बरीष जी ! जय ओबीओ !

संपादक जी सभी ग़ज़लें एक साथ इस त्वरित संकलन हेतु साधुवाद !!

ये सही है की ग़ज़ल ने आज एक लोकप्रिय विधा का रूप लिया है | मैंने भी काव्य में मुक्त छंद से शुरू कर अब इसी पर ध्यान केन्द्रित करना शुरू किया है | दर असल यह शायर को इंस्टंट रेस्पोंस देती है श्रोताओं और पाठकों तक इसका जल्द प्रभाव उत्पन्न करना भी और हर शेर में विषय वैविध्य की स्वतंत्रता इसका एक प्रमुख कारण है | अभी यहीं एक स्थान पर पढ़ा कि इस बार अधिकतर ग़ज़लें बहर में नहीं थी |

मैं कुछ कहना चाहता हूँ | जो ग़ज़लें बहर में नहीं थी उनपर तुरंत वहीं पर इस पर ध्यान दिलाना चाहिए और इसका तरीका सिखाने वाला होना चाहिए | सिर्फ यह लिख देना कि आपकी ग़ज़ल में फलां कमी है पर्याप्त नहीं  है | ग़ज़ल की कक्षा में मैंने शुरू में ही कहा था की तकतई या गिनती बतायी जाए कि उसे गिनते कैसे हैं.  यानि " ये शायरी जुबां हैं "  को आपकी बहर में किस प्रकार अलग अलग अक्षरों में गिना जाता है | यह अभी  यहीं बता जाए तो कम से कम मैं आभारी रहूँगा | मैं तो लय आधार पर ही लिखता हूँ | जानता और मानता हूँ कि मेरी कई ग़ज़लें इस दृष्टि से कमज़ोर हो सकती हैं | परन्तु सीखाना और सिखाना ज़रूरी है | और इस दिशा में मैं खुला हूँ कोई पूर्वाग्रह नहीं | अन्यथा आजकल लोग बिना रदीफ़-काफिया के ग़ज़लों के संकलन तक निकाल रहे हैं और इस दैनिक जागरण को सोमवार के साहित्य पेज पर प्रकाशित किसी की ग़ज़ल तो ग़ज़ल थी ही नहीं | मैंने वहाँ मेल भी किया है | परन्तु गिनती मैं नहीं सीख सका हूँ |

ओ बी ओ पर मैंने काफी कुछ सीखा है |यह क्रम जारी है | आभार | ध्यान रहे कि मात्र बीमारी बताने से इलाज संभव नहीं होता उसका नुस्खा भी बताया जाना लाजिमी है |

सादर !!

-अभिनव अरुण

 

अरुण भाई थोड़ी सावधानी रखिये उक्त टूल भी बहुत बढ़िया काम करता है |

ji galati jaldbaazi men hoti hai ! anyatha theek hai !!

देखिये सबकुछ दुरुस्त है.

क्यों न हम अपना ध्यान अभिनव अरुणजी और अम्बरीष जी की चल रही बेहतर बातों पर रखें.

 

सुप्रभात भाई अभिनव जी !

ओ बी ओ पर ही मैंने  भी कुछ सीखने की कोशिश की है ......उसे साझा कर रहा हूँ

221     2121        1221       212

लम्हे क हाँ है आज मेरे प्यार के लिए,

221     2121        1221       212

भाई जी आज क़द्र  नहीं कद्र दान की.

 

221     2121        1221       212

आतंकि यों को देख वहाँ कांप क्यों रहे.

221     2121        1221       212
साथी ल गा दो आज तो बाजी ही जान की.  

 

सादर .......

namaskaar ambarish ji !

lagta hai aamne saamne kisi guru ji se sekhna padega |

221     2121        1221       212
साथी ल गा दो आज तो बाजी ही जान की.  

 

सा =२ ,थी =2 ,ल =१ यानी बिना मात्र का एक पूर्ण अक्षर =१ और मात्र के साथ १+१=२
फिर गा =२ ठीक ,पर 'दो आज  ' के ऊपर २१२१ कैसे ? यह बड़ा कठिन लगता है |
तो बाजी =1221  कैसे ?

जानना यह भी होगा कि एक अक्षरके प्रयोग में  -

आधे पर वजन कितना होता है

मात्राओं के प्रयोग की दशा में हर्स्व और दीर्घ पर वज़न कितना ?

यथा भाई जी =भा=२ ई=२ जी के लिए =१ क्यों, कैसे ?

यह तो सत्य है ही मित्र कि बिना गुरू के पूरा ज्ञान नहीं मिलता ..............

//सा =२ ,थी =2 ,ल =१ यानी बिना मात्र का एक पूर्ण अक्षर =१ और मात्र के साथ १+१=२

फिर गा =२ ठीक ,पर 'दो आज  ' के ऊपर २१२१ कैसे ? यह बड़ा कठिन लगता है |
तो बाजी =1221  कैसे ?//

जहाँ तक मैं जानता हूँ .........लघु व गुरू अक्षर से नहीं अपितु उच्चारण से ही जाना जाता है
 
(२२१)      (२१     २१)    (१२    २१)         (२१२)
साथी ल   गा दो आज   तो बा  जी ही     जान की.

२२   १

भाई जी में जी को गिराकर कहा गया है 

२१

प्यार  में आधे प को नहीं गिना जाएगा

 जी अब कुछ कुछ समझ में आ रहा है | अभ्यास करता हूँ | शायद समझ में आ जाए | बागी जी और अम्बरीश जी ,सभी गुरुजनों के प्रति आभार !!

स्वागत है मित्र!

सादर .......

इसे देखिये -

तन्हा हुए दलान में चुपचाप सो गया  

या,

भोगा हुआ यथार्थ ग़र सुनाइये, सुनें

सपनों भरी ज़ुबानियाँ न दिल, न जान की..

या,

जिसके खयाल हरतरफ़ परचम बने उड़ें
वो खा रहा समाज में इज़्ज़त-ईमान की

 

मेरा ऐसा मनना है कि स्वर साध लेने पर यही परेशानी थोड़ी कम जरूर हो जाती है लेकिन कभी-कभी शायर के स्वर पर भी निर्भर करता है कि क्या वह कह रहा है तो यही सुनने वाले पर भी निर्भर करता है कि वह किस असर से सुन रहा है. विशेष कर तब जब सुनने वाले कुछ क़ाबिल शायर हैं. थोड़ा बहुत स्वीकारने-नकारने पर भी है. अतः, वर्ण और मात्रा को स्वर साधने के साथ मज़बूती से पकड़े रखा जाय. बादबाकी, देसज, विदेसज आदि शब्द पर भी अपनी चाहत-मलामत.  यानि.. आग का दरिया है और डूब कर जाना है .. !! ..

 

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Nilesh Shevgaonkar replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"ऐसे😁😁"
1 hour ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"अरे, ये तो कमाल  हो गया.. "
2 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय नीलेश भाई, पहले तो ये बताइए, ओबीओ पर टिप्पणी करने में आपने इमोजी कैसे इंफ्यूज की ? हम कई बार…"
2 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आपके फैन इंतज़ार में बूढे हो गए हुज़ूर  😜"
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय लक्ष्मण भाई बहुत  आभार आपका "
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है । आये सुझावों से इसमें और निखार आ गया है। हार्दिक…"
5 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन और अच्छे सुझाव के लिए आभार। पाँचवें…"
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय सौरभ भाई  उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार , जी आदरणीय सुझावा मुझे स्वीकार है , कुछ…"
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थति और उत्साहवर्धक  प्रतिक्रया  के लिए आपका हार्दिक…"
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति का रदीफ जिस उच्च मस्तिष्क की सोच की परिणति है. यह वेदान्त की…"
7 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . . उमर
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, यह तो स्पष्ट है, आप दोहों को लेकर सहज हो चले हैं. अलबत्ता, आपको अब दोहों की…"
8 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय योगराज सर, ओबीओ परिवार हमेशा से सीखने सिखाने की परम्परा को लेकर चला है। मर्यादित आचरण इस…"
8 hours ago

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