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ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी

२१२२       २१२२        २१२२   

औपचारिकता न खा जाये सरलता

********************************

ये अँधेरा, फैलता  जो  जा रहा है

रोशनी का अर्थ भी समझा रहा है

 

चढ़ चुका है इक शिकारी घोसले तक

क्या परिंदों को समझ कुछ आ रहा है 

 

जो दिया की बोर्ड से आदेश तुमने  

मानिटर से फल तुम्हें मिलता रहा है

 

पूंछ खींची आपने बकरा समझ कर

वो था बन्दर, जो अभी चौंका रहा है

 

औपचारिकता न खा जाये सरलता

आज रिश्ता ज्यों निभाया जा रहा है

 

दोनों पहलू साथ सिक्के के मिले थे    

तुमने जो चाहा वो ऊपर आ रहा है

 

है  वही रस्ता, वही  मंज़र हैं  सारे   

क्या कहानी फिर कोई दुहरा रहा है

 

कोई लौटा ले उसे समझा-बुझा कर 

तर्क से जो सच समझने जा रहा है  

******************************** 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on November 16, 2025 at 10:20am

आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने इसके सार्थक टिप्पणी की है गजल के स्वभाव को देखते हुए तीसरा चौथा शेर कम किया जा सकता है और जो शीर्षक के रूप में अपने पंक्ति दी है उस पर आदरणीय मिथिलेश जी ने भी कहा है और हमें भी यह शेर बहुत  पसंद आया है सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 7, 2025 at 9:32pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी सर वाह वाह क्या ही खूब गजल कही है इस बेहतरीन ग़ज़ल पर शेर दर शेर  दाद और मुबारकबाद कुबूल कीजिए। इस ग़ज़ल के मतले का मैंने ऐसे पाठ कर लिया

ये अँधेरा जो पसरता जा रहा है 

रोशनी का अर्थ भी समझा रहा है।

'की-बोर्ड' इस तरह लिखने से वाचन में ठहराव नहीं आता है।

औपचारिकता न खा जाये सरलता

आज रिश्ता ज्यों निभाया जा रहा है..वाह वाह 

इस शेर पर विशेष बधाई। सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 10, 2025 at 7:17pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 10, 2025 at 6:09pm

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। उत्तम गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

कोई लौटा ले उसे समझा-बुझा कर 

तर्क से जो सच समझने जा रहा है  

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