आदरणीय साथियो,
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पहचान
'मैं सुमन हूँ।' पहले ने बतया।
'.........?'
'मैं करीम।' दूसरे का उत्तर था।
फिर दोनों ने तीसरे अजनबी से पूछा, ' कौन हो तुम? '
'आदमी।' उसने कहा।
' अरे अपना नाम, पता बताओ।' दोनों गुर्राए।
' बताया तो। नहीं समझे? ' तीसरा बेबाकी से बोला।
" मौलिक तथा अप्रकाशित "
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है। यह लघुकथा पाठक को गहरे चिंतन की ओर ले जाती है। यह सवाल उठाती है कि हम पहचान को कैसे परिभाषित करते हैं और समाज दूसरों से क्या अपेक्षा करता है। तीसरे अजनबी का जवाब न केवल सुमन और करीम को चुनौती देता है, बल्कि पाठक को भी आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है। यह लघुकथा हल्के-फुल्के अंदाज़ में गंभीर दार्शनिक सवाल छोड़ जाती है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर
लघुकथा को मान देने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय, मिथिलेश जी।
आदाब। लघु आकार की मारक क्षमता वाली लघुकथा से गोष्ठी का आग़ाज़ करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। इंसानियत ही असली पहचान है। इंसानियत वाला ही आदमी है, नाम और पता वाले से पहचान हो भी तो क्या?
आदरणीय उस्मानी जी, लघुकथा की मार्मिकता की परख हेतु आपका दिली आभार।
प्रदत्त विषय को सार्थक और सटीक ढंग से शाब्दिक करती लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय मनन जी
डिलेवरी बॉय
मई महीने की सूखी गर्मी से दिन तप गया था। इतने सारे खाने के पैकेट लेकर तीसरे माले पर चढ़कर डिलेवरी बॉय पसीने से तरबतर ऑफिस के रिसेप्शन सह वेटिंग रूम में पहुंचा ।
उसे देखकर स्नेहा ने कहा, "भैया ऑफिस की पार्टी का खाना है आप अकेले ही ले आए?"
उसने कोई जवाब न देते हुए बस मुस्कुरा दिया और सवालिया निगाहों से स्नेहा की ओर देखता रहा।
स्नेहा ने पास के टेबल की ओर इशारा करते हुए कहा, "यहां रख दीजिए।" और खुद भी उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ गई।
अविनाश बस खड़े खड़े यह सब देख रहा, तो स्नेहा ने आगे बढ़ते हुए कहा, "अविनाश प्लीज हेल्प।"
अविनाश को टस से मस न होता देख स्नेहा ने ऑफिस बॉय को आवाज लगाई।
ऑफिस बॉय की मदद से उसने खाने के पैकेट टेबल जमा दिए।
स्नेहा ने फिर आवाज लगाई, "अविनाश वाटर कूलर से एक ग्लास पानी ले आओ, भैया धूप से आए हैं।"
लेकिन अविनाश नहीं हिला। स्नेहा ने जब तक भुगतान किया तब तक ऑफिस बॉय एक ग्लास में पानी ला चुका था। उसने एक सांस में पूरा पानी गटक लिया।
स्नेहा टिप देना चाहती थी लेकिन उसके पास चेंज नहीं थे। उसने फिर अविनाश को आवाज़ लगाई।
अविनाश इस बार भी टस से मस न हुआ। ऑफिस बॉय दौड़कर अविनाश के आगे खड़ा हो गया।
अविनाश ने जेब से एक सौ का नोट निकाला। उसे सुबह ही उसके पिता ने सौ सौ के पांच करारे नोट दिए थे।
डिलेवरी बॉय ने ऑफिस से बाहर निकलते हुए जेब से निकालकर फिर उस सौ के नोट को देखकर मुस्कुराते हुए बुदबुदाया, चलो सुबह के पांच सौ में से सौ तो लौट गए। उसे उम्मीद थी कि पीछे से आवाज आएगी "पापा।"
लेकिन उस खामोशी से उसकी पुरानी पहचान थी। एक व्याकुल ख़ामोशी सीढ़ियों से उतर गई।
( मौलिक व अप्रकाशित)
सादर नमस्कार आदरणीय। 'डेलिवरी बॉय' के ज़रिए पिता -पुत्र और बुज़ुर्ग विमर्श की मार्मिक लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहिब। बहुत दिनों बाद गोष्ठी में आपकी रचना पढ़कर हम धन्य हुए। //स्नेहा टिप देना चाहती थी....// यहां लेखकीय प्रवेश लग रहा है। इस बात को किसी तरह संवाद में पिरोया जा सके, तो बेहतर।
//"ओह, मेरे पास तो फुटकर पैसे भी नहीं हैं!", अपनी ज़ेब टटोलते हुए स्नेहा बुदबुदाई और तुरंत ही उसने अविनाश को पुकारा/आवाज़ लगाई।// ऐसा कुछ लिखा जा सकता है मेरे विचार से।
उस दफ़्तर में ये अविनाश है कौन? यह संकेत स्पष्ट नहीं हो सका। चपरासी है या बाबू? स्नेहा तो रिसेप्शनिस्ट है न!
जी दोनों सहकर्मी है।
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। कई सालों बाद लघुकथा का प्रयास किया है। अभी गुंजाइश है। कसावट का प्रयास करता हूं। सादर
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