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सलीक़े जीने के

हर क़दम अपना
सलीक़े से उठा
रहा में फूल हैं
कम काँटें
हैं ज़्यादा
कुछ सोच के
मिला है तेरे
शहर का पता
राम हैं कम
यहाँ रावण
है ज़्यादा
किसी से
रही नही रंजिश
रखने की ताक़त
लकीरें हैं कम
ठोकर
हैं ज़्यादा
हंस के गुज़ार
लीजिए दो पल
जीने के
यहाँ उजाले
हैं कम बादल
हैं ज़्यादा
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 27, 2016 at 8:49am
आदरणीया दीपू जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by S.S Dipu on September 25, 2016 at 11:32pm
डॉ गोपाल नारायान श्रीवास्तव जी धन्यवाद आपका में आयिन्दा से ख़याल रखूँगी। आभार
Comment by S.S Dipu on September 25, 2016 at 11:28pm
Samar kabeer ji आपने जिस तरह से अपनी बात कही है उसकी जितनी तारीफ़ की जाए काम है । एक true artist वही होता है जो किसी की ग़लती को बड़े प्यारे और सरल तरीक़े से बात कहे । really I appreciate your comments . Out and out its my pleasure to see your appreciation .
Thanks Dipu
Comment by Samar kabeer on September 25, 2016 at 10:46pm
मोहतरमा दीपू जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
कविता की तीसरी पंक्ति में 'राह'की जगह 'रहा'हो गया है,शायद टाइपिंग मिस्टेक है ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 25, 2016 at 7:47pm

राह में ----के ---स्थान पर रहा मे हो जाने से कविता ने पहले ही दम तोड़ दिया  लोगो ने आगे पढ़ा  ही न होगा  फिलहाल आपकी विकास यात्रा है . बहुत बहुत बधाई /

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