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ग़ज़ल .........;;;गुमनाम पिथौरागढ़ी

२१२२ २१२२ २१२

बात करते हो वफ़ा की सोच लो
इश्क होता है सजा भी सोच लो


ये सफ़र तो इश्क का दुश्वार है
राह में है रात काली सोच लो


लक्ष्य से भटके युवा हर ओर हैं
बन न जाएँ ये मवाली सोच लो


जाति मजहब रंग के ही नाम पर
बाँट दी जनता बिचारी सोच लो


फिर मसीहा आयें तो मंजिल मिले
झूठ है हर सम्त पापी सोच लो


ख्वाब में जब यम मिले बोले यही
रह गए दिन चार बाकि सोच लो


क्यों ग़ज़ल कहने लगे तुम भी भला
बह्र गम है काफिया भी सोच लो


मौलिक व अप्रकाशित

गुमनाम पिथौरागढ़ी

Views: 678

Comment

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Comment by umesh katara on February 12, 2015 at 6:08pm

क्यों ग़ज़ल कहने लगे तुम भी भला
बह्र गम है काफिया भी सोच लो
----------वाह साहब

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 12, 2015 at 5:50pm
आप सभी दोस्तों का हार्दिक आभार ,,,,,,,,,,, आप लोग सराहते हैं तो एक नई ऊर्जा मिलती है धन्यवाद
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 12, 2015 at 11:53am


 क्यों ग़ज़ल कहने लगे तुम भी भला
बह्र गम है काफिया भी सोच लो------------बेहतरीन गजल i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 12, 2015 at 11:26am

ये सफ़र तो इश्क का दुश्वार है
राह में है रात काली सोच लो-----बहुत खूब 

लक्ष्य से भटके युवा हर ओर हैं
बन न जाएँ ये मवाली सोच लो----उम्दा शेर 

अच्छी ग़ज़ल लिखी है गुमनाम जी ,हार्दिक बधाई 

Comment by khursheed khairadi on February 12, 2015 at 12:48am

ये सफ़र तो इश्क का दुश्वार है
राह में है रात काली सोच लो


लक्ष्य से भटके युवा हर ओर हैं
बन न जाएँ ये मवाली सोच लो

आदरणीय गुमनाम सर उम्दा ग़ज़ल हुई है |सभी अशहार लासानी है |ढेरों ...ढेरों दाद |सादर अभिनन्दन |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 11, 2015 at 9:54pm

बात करते हो वफ़ा की सोच लो
इश्क होता है सजा भी सोच लो........ बेहतरीन मतला 

ये सफ़र तो इश्क का दुश्वार है
राह में है रात काली सोच लो............. वाह वाह 


लक्ष्य से भटके युवा हर ओर हैं
बन न जाएँ ये मवाली सोच लो...... क्या खूब कहा है!


जाति मजहब रंग के ही नाम पर
बाँट दी जनता बिचारी सोच लो..... वाह 


फिर मसीहा आयें तो मंजिल मिले
झूठ है हर सम्त पापी सोच लो...........अच्छा शेर 


ख्वाब में जब यम मिले बोले यही
रह गए दिन चार बाकि सोच लो.............. बहुत उम्दा शेर 


क्यों ग़ज़ल कहने लगे तुम भी भला
बह्र गम है काफिया भी सोच लो......... वाह वाह .... बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय गुमनाम सर 

Comment by Hari Prakash Dubey on February 11, 2015 at 8:32pm

आदरणीय गुमनाम पिथौरागढ़ी  जी सुन्दर  ग़ज़ल, हार्दिक बधाई आपको !

Comment by maharshi tripathi on February 11, 2015 at 7:47pm

बहुत उम्दा गजल आ. गुमनाम जी ....हार्दिक बधाई आपको |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 11, 2015 at 4:21pm

आदरणीय गुमनाम भाई , बहुत प्यारी गज़ल हुई है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥ बाकि को बाक़ी कर लीजियेगा ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 11, 2015 at 3:04pm

आदरणीय गुमनाम जी इस सुंदर ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें  सादर 

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