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कहानी - वह सामने खड़ी थी

वह सामने खड़ी थी . मैं उसकी कौन थी ? क्यों आई थी वह मेरे पास ? बिना कुछ लिए चली क्यों गयी थी? न मैंने रोका, न वह रुकी. एक बिजली बनकर कौंधी थी, घटा बनकर बरसी थी और बिना किनारे गीले किये चली भी गयी . कुछ छींटे मेरे दामन पर भी गिरे थे. मैंने अपना आँचल निचोड़ लिया था. लेकिन न जाने उस छींट में ऐसा क्या था कि आज भी मैं उसकी नमी महसूस करती हूँ - रिसती रहती है- टप-टप और अचानक ऐसी बिजली कौंधती है कि मेरा खून जम जाता है -हर बूंद आकार लेती है ; तस्वीर बनती है -धुंधली -धुंधली ,सिमटी-सिमटी फिर कोई गर्म उँगली इस बूंद को छेड़ देती है -वह बिखर जाती है. उसका आना-जाना बरसों से लगा है. शायद लगा रहेगा .

उस दिन भी वह खड़ी थी मेरे द्वार पर. पहली बार आई थी. उसका आना एकदम आकस्मिक था. मैं तैयार नहीं थी. अपलक उसे देखती रही. किसी की पारदर्शी आँखें इतना बोल लेती हैं ये मैंने उसी दिन जाना था. बेझिझक वह भीतर आ गयी. आरामकुर्सी पर निश्चिन्तता से बैठ गयी. कमरे में हम दोनों थे और बीच में खड़ी थी सन्नाटे की दीवार. पहल उसी ने की. "यदि मैं कहूँ कि मैं आपके पास रहने आई हूँ तो क्या आप मान जाएँगी ?" अटपटा सवाल था. उत्तर देते न बना. मेरा उससे परिचय ही कितना है ? इस शहर में नयी हूँ. दो साल की कच्ची नौकरी है. एक कमरे का किराए का छोटा सा घर है . अकसर मकान मालिक पर निर्भर रहना पड़ता है. मैं अन्यमनस्क उसकी तरफ देख रही थी और वह अपनी रौ में बोल रही थी. "आप नहीं कर पाएंगी ऐसा. कोई नहीं कर पायेगा." मैंने बात काटकर कहा -"सुलभा ,तुम शादी के जोड़े में ? आज है क्या विवाह? पढ़ाई छोड़ दोगी? पहले क्यों नहीं बताया?" प्रश्नों की असंभावित झड़ी के लिए वह तैयार नहीं थी. वह थोड़ा उचककर मुसकरा दी थी. उसके गालों पर हलके गड्ढे पड़ गए ,आँखें सलज्ज झुक गयीं, हाथों की लाल चूड़ियाँ हलकी-सी बज उठीं. आहिस्ता से बोली -"शादी!" आवाज़ में विस्मय का पुट था. "नहीं तो !" फिर वह ठठाकर हंस पड़ी बिलकुल ऐसे जैसे किसी नटखट ने सितार के तार छेड़ दिए हों . हवा में मिश्री घुल गयी. उसकी खनक घुटे कमरे में स्वातंत्र्य का बोध करा रही थी. मैंने उठकर बंद खिड़की खोल दी. अचानक चुप्पी छा गयी. उसने गहरी सांस भरी. मैंने देखा वह अपने होंठ काट रही थी. चेहरा काला पड़ गया था और आँखों में रोने की विवशता थी जिसे वह मुझसे छिपाना चाहती थी. "क्या बात है ? कोई ख़ास बात?" मैं उठकर उसके पास आ गयी. उसकी पीठ सहलाने लगी . अब विवशता बाँध तोड़ चुकी थी. रोते-रोते नाक लाल हो गयी और मेरी गोदी में उसने अपना सिर छिपा लिया. कातर निगाहों से मुझे देखती और फिर ऊँचे स्वर में रोने लगती. जब आवेश थम गया तो बोली "मैम, शादी! कहाँ शादी? कैसी शादी? आपने भी तो नहीं की." इस बात के लिए मैं तैयार न थी. शर्म की लहर गालों से कानों तक खिंच गयी. बनावटी क्रोध किया और हलके से एक चपत सुलभा के कोमल गालों पर लगा दी. हौले से पूछा -"ये लाल जोड़ा तो शादी का दीख रहा है ? " उसने हथेलियाँ आगे कर दीं-"और ये मेहँदी ? कैसी रची है ,मैम ?" अब उसकी आवाज़ में स्वाभाविक चपलता थी,एक नवयौवना की चंचलता . "जोड़ा शादी का ही है,बाबूजी ने सिलवाया था. ये नथ उधार लेकर बनवाई थी. माँ से कहते न थकते थे -"हमारी सुलभा रानी बनकर राज करेगी. शकुन, बड़ी धूम-धाम से ब्याहूँगा अपनी लाडली. बस पढ़ाई ख़तम कर ले फिर ... " "और ..और ...मैम, ....ये चाहने वाले बाबूजी ही न रहे. हम अकेले हो गए ऊपर से उधारी ..." आँखें फिर बरस रही थीं. मैं सिर्फ आहत थी और वह बेबस ! रोशनदान में बैठी चिड़िया चींचीं कर उठी. हम दोनों ने एकसाथ गर्दन उठायी- चिड़िया चुप हो गयी जैसे इस धृष्टता की माफ़ी मांग रही हो. "मैम , आपके यहाँ हल्दी है?" उसने बिना तारतम्य के पूछा . मुझे उसकी हर बात पहेली लग रही थी पर इस भाव को मैं छिपा गयी. यंत्रवत उठी और हल्दी ले आई. उसने एक कार्ड निकाला, बिना छपा कार्ड . वहीँ रखी बोतल से थोड़ा पानी लिया और हाथों पर मल लिया. गीले हाथों पर हल्दी लगायी और कार्ड पर अपने सुन्दर हाथों की अल्पना जड़ दी, फिर कार्ड मुझे दे दिया . मैं असमंजस में देख रही थी. वही बोली -"मैम , दुबारा आऊँगी. आने देंगी न आप. आपको बहुत कुछ बताना चाहती थी पर देर हो गयी. जब बताने की घड़ी आई तो आप अपने घर चली गयीं थीं. मैं पूरी छुट्टियों में आपकी बाट जोहती रही. जब आप आयीं तो सब ख़तम हो चुका था." उसने अपने आँचल से एक और कार्ड निकाला तथा मेरे हाथ में थमा दिया. मैं कुछ कहती-सुनती उससे पहले ही वह दरवाजा खोल कर बिजली की गति से बाहर हो गयी. मैं दोनों कार्ड लिए हतप्रभ खड़ी थी. कार्ड की छपाई नुकीली पेंसिल बनकर मेरी आँखें छील रही थी. सारा दिन ये लिखावट मुझे कुरेदती रही... छीलती रही ... दीवारों से सुलभा की आवाज़ टकरा-टकराकर लौट आती और यहीं इसी कमरे में दफ़न हो जाती. रह-रहकर सुलभा सामने आ जाती. लाल जोड़े में लिपटी सुलभा ... हाथों में हिना रचाए सुलभा ....बड़ी सी नथ का भार संभालती सुलभा ...गोरे माथे पर सिंदूरी बिंदिया सजाये सुलभा....!


अगले दिन कार्ड पर दिए पते पर निश्चित समय पर पहुँच गयी. विशाल पंडाल - कनातें सजी थीं . इत्र की ख़ुशबू से वातावरण महक रहा था. शहनाई बज रही थी . वहीँ एक भव्य रथ पर सुलभा अपनी माँ के साथ बैठी थी. शादी का वही जोड़ा... वही मेहंदी ... ! मैंने उसी रूप को आरोपित किया जो कल मेरे सामने प्रत्यक्ष था. भव्य रथ यात्रा थी. सुलभा पञ्च -मेवों का दान करती .. पीछे चलता जन-समूह उसे लूट कर प्रसाद प्राप्ति का सुख पाता. पर इस व्यस्तता में चार आँखें थीं जो कुछ अलग -अलग सूनापन लिए खुद से लड़ रहीं थीं - दो मेरी और दो सुलभा की. रथ यात्रा नियत समय पर नियत स्थान पर पहुँच गयी. कोई और स्थान नहीं - मेरा ही कॉलेज; जहाँ मैं पढ़ाती थी सुलभा को.... और अन्य कइयों को . कॉलेज के प्रांगण को विशेष रूप से सजाया गया था. नीली-पीली, लाल-हरी तिकोनी झंडियाँ ... आज विशाल पूजा जो होनी थी!


सब कुछ मेरे सामने हुआ ... मैं चुप खड़ी रही ! सुलभा अब सफ़ेद वस्त्रों में थी . संगमरमर की तराशी मूर्ति! वह मंत्रचलित सी बैठ गयी. जन-समूह उसकी जय-जयकार कर रहा था. कितने लम्बे बाल हैं सुलभा के ! पहले कभी क्यों नहीं ध्यान गया ! रेशम जैसे बाल लहरा रहे थे. मौसम बहुत खुशगवार था पर गरम पसीना मेरे माथे से चू रहा था .ठंडी हवा कंटीली जान पड़ रही थी. सब कुछ बदल रहा था ... वेश ..किसका ? ... भाव.....किसका? और वह सुन्दर चिर -परिचित नाम किसका ...! मैंने आँखें मूंद लीं . मन हुआ कि भाग जाऊं, किन्तु वे दो आँखें मुझे घेर लेतीं.. ... जकड लेतीं .... मैं कहीं नहीं गयी. वहीँ रही ..अपनी सुलभा के पास. यही तो चाहती थी वह .


अब उसके सिर पर उस्तरा चल रहा था .... घर्र -घर्र करता ... लपक -लपक कर उसके बाल कटते रहे और मैं ........ जडवत देखती रही ... घर्र -घर्र -घर्र ...."यदि मैं कहूँ कि मैं आपके पास रहने आई हूँ तो क्या आप मान जाएँगी ?" घर्र -घर्र -घर्र ...जैसे कोई घन पीट-पीटकर शब्द कानों में उतार रहा था और मैं झूठे मुँह भी न बोल पायी....सुलभा तू इसे अपना घर मान. मैंने सुना कि उसका नाम साक्षी महाराज हो गया है. ये भी सुना कि कल वह पितृ -गृह प्रथम भीक्षा लेने जायेगी और अपने माँ-पिता का नाम गौरवान्वित करेगी .


कॉलेज का प्रांगण खली हो गया. सुलभा चली गयी. मैं भी लौट आई अपने एक कमरे के घर में. रोशनदान में बैठी चिड़िया चीं चीं करती रही. मैंने आँखें बंद कर लीं . अगले दिन सुबह -सुबह किसी ने दरवाज़ा खटखटाया . बेमन से दरवाज़ा खोला .....सामने सुलभा खड़ी थी .. सफ़ेद कपड़ों में लिपटी...हाथ में एक भिक्षा पात्र. थोड़ी देर खड़ी रही...सूनी बड़ी आँखें कुछ पूछ रहीं थीं ... कुछ मांग रहीं थीं ,पर मेरे पास क्या था जो दे देती ......वह खाली हाथ चली गयी.....पर उसका दिया हल्दी-लगा कार्ड है मेरे पास . हल्दी मेरे पके बालों के साथ कुछ उजली हो गयी है. एक आवाज़ गाहे-बगाहे सुनती हूँ , कोई कहा रहा है ....सुलभा कब आओगी???

अपर्णा

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Comment

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Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on September 23, 2010 at 9:42pm
बहुत ही बढ़िया और मार्मिक चित्रण है अपर्णा जी...ज्यादा कुछ नहीं लिख रहा हूँ बस इतना ही कहना है की बहुत ही बढ़िया चित्रण किया है आपने..
Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 6:31pm
Thanks! subodh ji...
Comment by Subodh kumar on September 21, 2010 at 5:48pm
bahut sunder...badhai aapko
Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 9:45am
Ganesh ji aapki tippani aur adhik likhne ko prerit karti hai.
naveen ji.. kahani ki lambayi... gady likhna padhne se bhi adhik kathin hota hai .. ek chhoti si kahani ya laghu katha kai din aapko apne patron ki beech ghumati hai ... aap kathputli bankar naachte hain ... par ismen bhi alag aanand hai...

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 21, 2010 at 8:37am
क्या कहूँ मैं इस कहानी पर, एक बहुत ही मार्मिक चित्रण, लेखन शैली ऐसी जो पूरी तरह पाठक को बस मे कर ले, कोई एक बार केवल पढना शुरू कर दे, वो बिना पढ़े रह ही नहीं सकता, कथानक, चरित्र चित्रण , भाषा शैली, शब्द प्रयोग सभी के सभी संतुलित,
सब मिलकर बहुत ही बढ़िया , आदरणीया अपर्णा जी बधाई स्वीकार कीजिये ,
Comment by Aparna Bhatnagar on September 20, 2010 at 9:53pm
Thanks! sir...

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on September 20, 2010 at 9:42pm
बहुत ही मार्मिक कहानी|

अब उसके सिर पर उस्तरा चल रहा था .... घर्र -घर्र करता ... लपक -लपक कर उसके बाल कटते रहे और मैं ........ जडवत देखती रही ... घर्र -घर्र -घर्र ..

इस उस्तरे ने उसकी कितनी ही आकाँक्षाओं के पर क़तर दिए|
अद्भुत चित्रण|
Comment by Rash Bihari Ravi on September 20, 2010 at 3:53pm
bahut sundar likha aapne
Comment by Aparna Bhatnagar on September 20, 2010 at 1:04pm
धन्यवाद पूजा .. आपने कहानी पढ़ी .. कहानी की यह पात्र हमारे जीवन से जुडी और फिर लुप्त भी हो गयी लेकिन कुछ छिन्न-भिन्न यादें हैं जो कभी पीछा नहीं छोड़तीं ...
Comment by Pooja Singh on September 20, 2010 at 10:25am
अर्पणा जी , नमस्कार

आज आपकी कहानी पढ़ी बहुत ही यथार्थवादी है , जो अंतर्मन को छू गयी है , आपने सुलभा पात्र के माध्यम से नारी जीवन के जिन { सब कुछ बदल रहा था ... वेश ..किसका ? ... भाव.....किसका? और वह सुन्दर चिर -परिचित नाम किसका ...! मैंने आँखें मूंद लीं . मन हुआ कि भाग जाऊं, किन्तु वे दो आँखें मुझे घेर लेतीं.. ... जकड लेतीं .... मैं कहीं नहीं गयी. वहीँ रही ..अपनी सुलभा के पास. यही तो चाहती थी वह } प्रतिमानों जिन बारीकियो से चित्रित किया है | वह अद्वितीय है , बहुत बढिया कहानी है | बधाई स्वीकार करे |

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