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भाग्य और गर्भ काल ( दोहा दसक)-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

चाहे करता  भाग्य  ही, जीवन भर संयोग
उच्च कर्म से भाग्य भी, बदला करते लोग।१।
*
सद्कर्मों की  चाल  से, माता देकर त्राण
गर्भकाल में जीव का, करे भाग्य निर्माण।२।
*
कर्म भाग्य  दोनों  रहें, जब  बन पूरक रोज
पाते दुख के गाँव में, मानव तब सुख खोज।३।
*
सदा कर्म ही जीव का, देता है फल जान
उद्यत लेकिन कर्म को, भाग्य करे नादान।४।
*
गर्भकाल है स्वर्ग या, जीवन से बढ़ नर्क
या लेखा है भाग्य का, अपने अपने तर्क।५।
*
गर्भ काल सब एक  से, जैसे बन्दी जेल
बाहर आए भूलकर, सब अंदर का खेल।६।
*
गर्भकाल में धुल गयी, विगत कर्म की याद
इस कारण जन्मा यहाँ, सदा भाग्य का वाद।७।
*
कर्मों से  गतिशील  है, सुनो भाग्य के पाँव
इसीलिए वो नापता, सुख दुख के हर गाँव।८।
*
कहीं सरल हो वो  भले, कहीं बहुत ही वक्र
गति पाता है भाग्य से, जन्म मरण का चक्र।९।
*
ज्ञान मिले  लंकेश  सा, दम्भ  करे  इन्सान
तभी भाग्य से भाग्य का, उसे नहीं है ज्ञान।१०।
**

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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