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दोहा दसक- बेटी -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

बेटी  को  बेटी  रखो, करके  इतना पुष्ट
भीतर पौरुष देखकर, डर जाये हर दुष्ट।१।
*
बेटा बेटा  कह  नहीं, बेटी  ही  नित बोल
बेटा कहके कर नहीं, कम बेटी का मोल।२।
*
करती दो घर  एक  है, बेटी पीहर छोड़
कहे पराई पर उसे, जग की रीत निगोड़।३।
*
कर मत कच्ची नींव पर, बेटी का निर्माण
होता नहीं  समाज  का, ऐसे जग में त्राण।४।
*
बेटी को मत दीजिए, अबला है की सीख
कर्म उसी के गेह  से, रहे चाँद तक चीख।५।
*
बेटों को भी दीजिए, कुछ ऐसे सँस्कार
बेटी के सम्मान  का, वो सीखें आचार।६।
*
हर बेटी  श्रद्धेय  है, इसे बनाओ रीत
भूले हैं ये इसलिए, रहे दुशासन जीत।७।
*
अधरों पर हो अब नहीं, भूले भी ये बात
बेटी के सम्मान का, दिन भी काली रात।८।
*
नहीं दुशासन  सुत  बने, और  नहीं लंकेश
सिर्फ गजानन हो तभी, भला नार को देश।९।
*
नुचे न देह बलात ये, हरण न हो अब चीर
हर बेटी को बोल दो,  बन काली रणधीर।१०।
***
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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