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कैसे कैसे बिकता है आदमी -- डॉo विजय शंकर

आदमी की कीमत समझता है आदमी
किस किस भाव देखिये बिकता है आदमी ॥

जमीर कीमती है जानता है आदमी
तभी उसका बड़ा खरीदार है आदमी ॥

जब चाहे जहां चाहे खरीद ले कोई
हर जगह हर वक़्त खूब बिकता है आदमी ॥

रिश्ते - दोस्ती में सब देखता है आदमी
बिकते समय कुछ नहीं देखता है आदमी ॥

खरीदार होना चाहिए देशी हो विदेशी
जानवर से भी सस्ते में बिकता है आदमी ॥

गुलामी कुप्रथा थी इक जो खत्म हो गयी
अब तो खुद बिकने को आज़ाद है आदमी ॥

नेता, अफसर-बाबू , चपरासी सब बिकते हैं
बराबर होते हैं सब, जब बिकता है आदमी ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 5, 2015 at 9:00pm
आदरणीय सुश्री कांता रॉय जी , आपने तो पंक्ति दर पंक्ति बहुत सुन्दर विस्तृत विवेचन कर दिया। आपका बहुत बहुत आभार। आपने रचना को समय दिया , साथ में मान दिया , पुनः , आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by pratibha pande on August 5, 2015 at 8:13pm
रिश्ते दोस्ती में सब देखता है आदमी ,बिकते समय कुछ नहीं देखता है आदमी बहुत अच्छी पंक्तियाँ है ,बधाई आपको आ०विजय शंकर जी इस सशक्त रचना के लिए
Comment by Sushil Sarna on August 5, 2015 at 7:46pm

जमीर कीमती है जानता है आदमी
तभी उसका बड़ा खरीदार है आदमी ॥ … आदमी की खूब पहचान की है सर … नख से सिर तक उसके हर पहलू को आपने उजागर कर दिया है .... अपनी इस बेहतरीन ग़ज़ल के माध्यम से आदमी की आदमीयत दिखाने की जितनी तारीफ़ की जाए कम है … इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय  Dr. Vijai Shanker जी।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on August 5, 2015 at 7:06pm

खूब सर! आज का सच का बयान देती रचना! हार्दिक बधाई!

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 5, 2015 at 6:47pm

बहुत कमाल कहा है ...

गुलामी कुप्रथा थी इक जो खत्म हो गयी
अब तो खुद बिकने को आज़ाद है आदमी ॥

Comment by kanta roy on August 5, 2015 at 1:25pm
आदमी की कीमत समझता है आदमी
किस किस भाव देखिये बिकता है आदमी ॥.......आदमी के बिकने की बहुत बडी़ बात की है आपने यहाँ ....बढिया बात तो नहीं होता है आदमी का बिकना इसलिए पढकर एक आह ! सी निकली जरूर है वाह ! जैसे घुट कर रह गई ।


जमीर कीमती है जानता है आदमी
तभी उसका बड़ा खरीदार है आदमी ॥..... सच कहा है आपने अपनी इस पंक्ति में कि जमीर वाला ही जमीर की खरीद फरोख्त में आगे होता है । बढिया


जब चाहे जहां चाहे खरीद ले कोई
हर जगह हर वक़्त खूब बिकता है आदमी ॥..... बिकने को तैयार हमेशा , सूरत बदल बदल कर कीमतें आ जाती है ।


रिश्ते - दोस्ती में सब देखता है आदमी
बिकते समय कुछ नहीं देखता है आदमी ॥...... सही कहा है शत प्रतिशत कि इंसान दोस्ती रिश्तेदारी करते वक्त कितने जाँच पडताल करता है लेकिन स्वंय के बिकने से पहले अपने स्वंय की ही जाँच - पडताल भूल जाता है । बहुत बडी विडंबना है ये ।

खरीदार होना चाहिए देशी हो विदेशी
जानवर से भी सस्ते में बिकता है आदमी ॥...... आज इंसान की कीमत है हर जगह सामान की तरह । बिकने के लिए ही शुरू हो जाती है तैयारी । नैसर्गिक जिंदगी से दूर भौतिकता से चकाचौंध बेच कर अपना सब कुछ बडा खुश हो लेता है आदमी । वाह !!!

गुलामी कुप्रथा थी इक जो खत्म हो गयी
अब तो खुद बिकने को आज़ाद है आदमी ॥...... हाँ , अब हम स्वंय अपनी बोली लगाते है । पहले बेचते थे कोई और अब हम स्वंय ही अपनी जमीर के दलाल हो गये ।

नेता, अफसर-बाबू , चपरासी सब बिकते हैं
बराबर होते हैं सब, जब बिकता है आदमी ॥.......भेदभाव रहित सब एक से ही बिकने को आतुर ..... क्या जबरदस्त कटाक्ष किया है आपने । बहुत खूब लिखा है आपने ये बिकने के सिलसिले को आदरणीय डा. विजय शंकर जी बधाई

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