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आज़ादी --- डॉ o विजय शंकर

उड़ता वो आज़ाद परिंदा
नभ छू लेने की कोशिश
करता है,
ऊंचा , ऊंचा उड़ता है |
बीच बीच में धरती छूने ,
लौट , लौट कर आता है ,
कुछ चुंगता है, कुछ खाता है,
इठलाता है, कुछ गाता है ,
फिर , फुर्र से उड़ जाता है ,
दूर, बहुत दूर , ओझल हो ,
क्षितिज तरफ वो जाता है ,
क्षितिज तरफ वो जाता है ||
यूँ आते - जाते हमको वो
अपने हौसले दिखलाता है ,
और हमको यह बतलाता है,
हौसलों से क्या नहीं हो जाता है,
हौसलों से क्या नहीं हो जाता है ॥

एक परिंदा पिंजड़े में है ,
खाता है , पीता है ,
गाता है , सोता है ,
सबका मन बहलाता है,
फुर फुर्र भी वो करता है ,
बस उड़ नहीं वो पाता है ,
जोर बहुत वो लगाता है,
थक जाता है, सो जाता है,
फिर जागता है, खाता है ,
गाता है , फिर सो जाता है ,
वह हमको यह बतलाता है,
कुछ ऐसा भी है , बेशक है,
जो हो नहीं सकता है ,
कितना जोर लगा ले परिंदा
पिंजड़ा लेके नहीं उड़ सकता है।
यह ऐसा है जो हो नहीं सकता ,
पिंजड़े में बंद रहते हुए ,
वो कभी उड़ नहीं सकता है ॥
वो कभी उड़ नहीं सकता है ॥


मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 20, 2015 at 9:46am
आपके मूल्यांकन हेतु बहुत बहुत आभार, आदरणीय प्रतिभा त्रिपाठी जी, बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 10:46pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, दोनों ही स्थितियां अपना अपना सच बता रहीं हैं ,सही है, आपकी पकड़ का आभार, बधाई हेतु आपको धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 10:43pm
आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी, हिलने-डुलने , चलने-फिरने ,बोलने-उड़ने की स्वतंत्रता में ही स्वतंत्रता है, आपकी पकड़ का आभार, बधाई हेतु आपको धन्यवाद, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 19, 2015 at 9:00pm

आदरणीय विजय भाई , दोनों स्थितियाँ दो सच बयान कर रहीं है , बढ़िया रचना हुई है , हार्दिक बधाई ॥

Comment by maharshi tripathi on February 19, 2015 at 8:27pm

एक तरफ खुले विचारों वाला मनुष्य और दूसरी तरफ दूसरे के अधीन जीवन जीता मनुष्य ,,,,,,क्या अंतर बताया आपने आ. विजय शंकर जी आपको बधाई | 

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 6:26pm
आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी, स्मृतियों से जुड़ी आपकी प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार एवं धन्यवाद, सादर.
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 6:23pm
आदरणीय परी एम श्लोक जी, सड़क पर रेड लाइट की प्रतीक्षा ही हमें कितना विवश करती है, पिंजड़े की जिंदगी क्या कहती है, आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार, बधाई हेतु ह्रदय से धन्यवाद, सादर.
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 6:19pm
आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी, एक खुला परिवेश , एक बंद परिवेश, कितना अंतर डालता है ,बस यही है, आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार, बधाई हेतु ह्रदय से धन्यवाद, सादर.
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 19, 2015 at 6:15pm
आदरणीय हरी प्रकाश जी, बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया प्रस्तुत की आपने , आपका आभार, बधाई हेतु ह्रदय से धन्यवाद, सादर.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 19, 2015 at 1:26pm

आ० विजय सर  !

आपने जीवन के दो भिन्न दृश्य दिखाए  i 'अपना अपना भाग्य' कहानी याद आती है i  सादर i

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