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माग रहे हैं तोड़ के घर को -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२


छोड़ गये थे केवट जिन को तूफानी मझधारों पर
साहिल वालो उनसे पूछो क्या बीती दुखियारों पर।१।


हम  जैसों  की  मजबूरी  थी  हालातों  के  मारे थे
कहने वाले खुदा स्वयम् को नाचे खूब इशारों पर।२।


आग जलाकर मजहब की नित सबने जो तैयार किये
सच  में  हर  पल  देश  हमारा  बैठा  उन  अंगारों पर।३।


माग रहे हैं तोड़ के घर को नित हिस्से का कोना सब
कौन समझ पायेगा कितनी  चोट  पड़ी आधारों पर।४।


आप समझ जाते गर पीड़ा जो दी थी  बँटवारे ने
लौट न आते ओढ़ धर्म को आजादी के नारों पर।५।


असली नकली सत्य झूठ की यूँ मुश्किल पहचान हुई
मन की पीड़ा आकर सूखी सबके ही रुखसारों पर।६।


क्या होगा दुनिया का बोलो जब हैं सारे सत्य मरे
बात कौम की फिर से भारी मिट्टी के आभारों पर।७।

***
मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 12, 2020 at 3:36am

आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।

Comment by vijay nikore on January 9, 2020 at 7:02am

मित्र, आपकी  रचना मन के बहुत पास आई है। आनन्द आ गया पढ़ कर। हार्दिक बधाई, मित्र लक्ष्मण जी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 9, 2020 at 5:16am

आ. भाई प्रदीप देवीशरण भट्ट जी, सादर अभिवादन। गजल को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 9, 2020 at 5:15am

आ. भाई रवि भसीन 'शाहिद' जी, सादर अभिवादन। गजल को मान देने के लिए आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 8:13am

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 8:13am

आ. भाई आशुतोष जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार। सामान्य अर्थ में मझधार में ही होता है । पर मैंने यहाँ उसे तूफानी धार के भरोसे छोड़ने के संदर्भ में लिया है अतः पर का प्रयोग किया है । ज्यादा स्पष्ट करने के लिए शायद
' झट तूफानी धारों पर' लिखना था । धन्यवाद।

Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 7, 2020 at 1:43pm

बेहतरीन गज़ल हुई लक्ष्मण जी, बधाई

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on January 6, 2020 at 7:29pm

आदरणीय मुसाफ़िर भाई, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें! आपकी ग़ज़ल में मौजूदा दौर के हादसों की तरफ़ बहुत अच्छे इशारे और नसीहतें हैं।

Comment by TEJ VEER SINGH on January 5, 2020 at 12:14pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी।बेहतरीन गज़ल।

आप समझ जाते गर पीड़ा जो दी थी  बँटवारे ने
लौट न आते ओढ़ धर्म को आजादी के नारों पर।५।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 5, 2020 at 10:17am

आदरणीय भाई लक्षमण जी बहुत ही उम्दा रचना है / इस रचना के लिए हार्दिक बधाई / बैसे मझधार में हमेशा सुना था मझधार पर के प्रयोग पर थोडा असमंजस की स्थिति में हूँ / नव बर्ष की भी हार्दिक शुभकामनाएं सादर 

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