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ज़िन्दगी सपेरे की रहस्यमयी पिटारी हो मानो

नागिन-सी सोच की भटकती हुई गलियों में

हर रिश्ते की कमल-पंखुरी मुरझा कर

सूखकर भी झड़ जाने से पहले लिख जाती है

विचार-भाव में कोई लम्बी भीषण कहानी

अद्भुत है सृष्टि हर रिश्ते की

कभी किसी आकाशीय स्नेह से द्रवित

कभी परिवर्तित हृदय-संबंध से आतंकित

तारिकायों के संग नृत्य में प्र्फुल्लित

या कभी शून्य की सियाह सुरंग से उद्विग्न

पल भर में कहाँ से कहाँ घूम आता है मन

बरसाती रातों में हवा की सांयँ-सांयँ

भरमाया, कुछ घबराया मन मेरा

विचार-मग्न मैं बैठा सोच रहा

कौन है, कोई तो है जो बता आता है पतंगों को

मौसम नहीं है आज आने का, तुम न आना

तुम, न आना ...

अब आयु की भीगी संध्याओं में

स्मृतियों के कुहरे में दबा पराजित-सा

ग़मग़ीन है आज, बहुत उदास है मन

छूट रही है धमनीयों में भी शायद

रफ़तार की खून से पहचान ...

तुम ... न आना

         ---------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on December 1, 2019 at 7:39am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई लक्ष्मण जी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 1, 2019 at 6:24am

आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। उत्तम और भावप्रधान रचना के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by vijay nikore on December 1, 2019 at 2:00am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र सुशील जी।

Comment by Sushil Sarna on November 30, 2019 at 8:29pm

वाह आदरणीय विजय निकोर जी वाह .... आपका हर सृजन भावनाओं का सैलाब होता है। इस अप्रतिम सृजन के लिए दिल से बधाई सर।

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