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काश मैं भी उड़ सकती

खुले विस्तृत गगन में

बादलों को चीरते हुए 

और छू सकती आकाश

                                                                   

पर ये संभव ही कहाँ है 

भाग्य के हाथों हूँ मजबूर

यूँ ही रोज़ खिड़की पर बैठना

और तकना है खाली व्योम

                                   

पर ये मन मानता ही नहीं

कल्पनाओं के पंखों पर सवार

उड़ता रहता है सुबहो शाम

इसे आता नहीं दूजा कोई काम

  

                                                                         

 मन है कि मानता ही नहीँ ....

-प्रदीप देवीशरण भट्ट-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 27, 2019 at 6:27pm

शुक्रिया छोटे लाल जी

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on November 27, 2019 at 10:57am

आदरणीय प्रदीप भट्ट जी बहुत बढ़िया भाव पिरोया है आपने, इस सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई

Comment by Usha on November 27, 2019 at 8:31am

आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट सर, सचमुच 'भाग्य' अहम भूमिका निभाता है जीवन में। सुंदर कविता के लिये बधाई स्वीकार करें। सादर।

Comment by Sushil Sarna on November 26, 2019 at 4:17pm

वाह अंतर्मन के भावों का सुंदर चित्रण। ... हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

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