For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

काँधे पर सभी शरीर गए (इस्लाह के लिए)

16 रुकनी ग़ज़ल

किस किस के नाम गिनाऊँ मैं, जो इस दिल मे भर पीर गए
जिस जिस को हिफाज़त सौंपी थी, वो सारे ही दिल चीर गए

वो तन्हा छोड़ गए लेकिन मैं उनको दोष नहीं दूँगा
जो तोहफे में इन दो प्यासे नयनों को दे कर नीर गए

हर गीत ग़ज़ल अशआर सभी हैं जिन लोगों की सौगातें
आबाद रहें वो, जो मुझ को, दे कर ग़म की जागीर गए

हर ख़ाब कुचल डाले मेरे, तुम रौंद गए अरमानों को
पर मुआफ़ किया मैंने तुमको, तुम चाहे कर तफ़्सीर गए

रातों की जिम्मेदारी इक लक्ष्मण को थी अब पंकज को
कम से कम मुझ नाची'ज़ को वो दे कर इतनी तौक़ीर गए

पैदल गाड़ी चाहे जिस भी साधन से आप चलें, लेकिन
अंतिम यात्रा में काँधों पर सबके निर्जीव शरीर गए

मौलिक अप्रकाशित 

Views: 932

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 11, 2018 at 7:50pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर बहुत आभार

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 1, 2018 at 12:42pm

आ. भाई पंकज जी, सुंदर गजल हुयी है। हार्दिक बधाई ।

Comment by Ajay Tiwari on August 31, 2018 at 7:08am

आदरणीय पंकज जी, शेर अच्छे हैं और अब बह्र के हिसाब से भी ठीक हैं. मेरे लिए इतना ही काफी है. सादर  

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 30, 2018 at 2:38pm

आदरणीय अजय जी ये ग़ज़ल वैसे भी बह्र-ए-मीर होने का दावा नहीं करती.....यह हिंदी के 16 मात्रिक विधान को ध्यान में रखकर लिखी है मैंने, इसमें काफ़िये और रदीफ़ का प्रयोग कर के इसे ग़ज़ल का रूप दिया गया है। 

गज़लगो इसे 2222 की बह्र मानते हैं या 22 के वज़्न वाली 16 रुक्नी बह्र यह उनकी समस्या है......यह हिंदी की विशुद्ध ग़ज़लों में स्थान पाएगी.....

Comment by Ajay Tiwari on August 30, 2018 at 12:41pm

आदरणीय पंकज जी, आपके द्वारा किये गए संशोधन बहुत अच्छे हैं अब दोष दूर हो गए है.

\\मुझे लगता है, कि 22 वाली बहरों को आप सिर्फ 22 के संदर्भ में देखते हैं, दर असल उन्हें 2222 के संदर्भ में पूर्ण देखिए... कुछ शब्द जैसे....गीत-गान, शब्द-अर्थ, साथ-साथ इन पर भी गौर करें?\\

22 वाली सारी बह्रेें  बह्र-ए-मीर नहीं होती. इसकी एक स्पष्ट पहचान ये है कि अगर मतले के एक भी रुक्न में फेलुन(22) का वज़न गणितीय रूप से 2 +1+1 नहीं है तो ऐसी ग़ज़ल बह्र-ए-मीर पर आधारित नहीं होती. 'गीत-गान' और 'शब्द-अर्थ' को 2222 के वज़न पर 'बह्र-ए-मीर' में एक छूट के तौर पर (कभी-कभार अगर और कोई विकल्प न हो) इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन आरिफ़ हसन खान साहब जैसे बहुत से अरूज़ी इसे भी एक गलती ही मानते हैं; इसलिए इससे बचाना  बेहतर होगा.

आपकी ग़ज़ल बह्र-ए-मीर पर नहीं 'मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन मुजाइफ़' पर आधारित है. इस बह्र में 'गीत-गान' और 'शब्द-अर्थ' को 2222 के वज़न पर रखना मुमकीन नहीं है. 

22 वाली वाली बह्रों को इस्तेमाल करते हुए हमेशा अतिरिक्त रूप से सतर्क रहना चाहिए क्योंकि एक भी हर्फ़ के इधर-उधर होने से मुतदारिक से मुतक़ारिब और मुतक़ारिब से मुतदारिक में जाने का खतरा बना रहता है. इन बह्रों के इस्तेमाल में बड़े-बड़े शायरों ने ठोकरें खायीं हैं. 

सादर 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 29, 2018 at 5:17pm

आदरणीय रवि सर, आपके सुझाव उपयोगी हैं, इसलिए क्षमा मांग कर शर्मिंदा न करें। आप बड़ों की इस्लाह का ही प्रभाव है कि कुछेक शेर ठीक ठाक कहने लगा हूँ।

सादर अभिवादन

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 29, 2018 at 5:15pm

आदरणीय सौरभ सर, सादर प्रणाम.....कॉमा हटा दिया जाएगा।

आशीर्वाद प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार

Comment by Ravi Shukla on August 29, 2018 at 4:50pm

आदरणीय पंकज जी नमस्कार आप की एक और ग़ज़ल से आज रूबरू हुए उस्ताद शायरों की प्रतिक्रिया के बाद अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कुछ डर लग रहा है शुरू के अशआर में बहर का प्रवाह बहुत अच्छा लगा। पर बाद के शेर में वह बात नहीं आ पाई ।मेरे नजदीक बहरे मीर में फैलुन फ़ैलुन की जितनी सही तरकीब होती है उतना ही इसका प्रभाव अधिक मान सकते हैं । जैसे (कभी कभी 1212मुफाइलुन)  को फैलुन फ़ा के रूप में इस बहर में ले लिया जाता है  किंतु मेरा सदैव प्रयास रहता है  इस तरह के प्रयोग से बचा जाए। कहने का तात्पर्य यह है 2112 को 222 तो मान सकते हैं किंतु 12122 को 222 मानना तर्कसंगत मुझे नहीं लगता। यदि मेरी बात असहज लगी हो तो आप से और मंच से क्षमा

Comment by Samar kabeer on August 29, 2018 at 11:49am

शिकस्त-ए-हर्फ़-ए-नारवा का ऐब मेरे नज़दीक इतनी अहमियत का हामिल नहीं,क्योंकि कई बड़े शाइर इसका शिकार हैं,ये बात अलग की ओबीओ के मंच पर इसे इंगित करना  ज़रूरी भी है, कि ये सीखने सिखाने का मंच है ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 29, 2018 at 10:00am

भाई पंकज जी, आपकी कहन का एक विशेष शैली है, जो आत्मपरकता को व्यापक बनाने की हामी है. 

मतले के ठीक बाद के शेर में नाहक ही कॉमा लगा रखा है. 

धीरे-धीरे ग़ज़ल ज़ुबान पर चढ़ती है. फिर ख़ूब चढ़ती है. 

हार्दिक क बधाइयाँ.. 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service