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मुहब्बत भी निभाना अब सज़ा होने लगा है

*1222 1222 1222 122*

ज़माना फिर न जाने क्यों ख़फ़ा होने लगा है।

मुहब्बत भी निभाना अब सज़ा होने लगा है।।


कभी वादे किये जिसने कसम खाकर ख़ुदा की,

वही फिर अब न जाने क्यों ज़ुदा होने लगा है।।


वहाँ पर हाल कैसा है, वही बस जान पाया,

यहाँ पर ज़ख़्म, ज़ख़्मों की दवा होने लगा है।।


समझ बैठा था' तुमको मैं, मुहब्बत का समंदर,

गुमाँ मेरा यहाँ आकर, रफ़ा होने लगा है।।


मुहब्बत का हमेशा ही यही अंज़ाम होता,

शमा से मिल के' परवाना फ़ना होने लगा है।।


नज़र से पीने' का पहले, मज़ा दिलकश लगा था,

मगर अब ज़ाम पीने का, जिया होने लगा है।।


यहाँ पर 'दीप' का तो है, वही अंदाज़ कायम,

वहाँ हर शख़्स अब शायद, ख़ुदा होने लगा है।।



-प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप'

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on November 19, 2017 at 8:44pm
जनाब प्रदीप कुमार पाण्डेय'दीप'जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा,

'वहाँ पर हाल कैसा है,वही बस जान पाया
यहाँ पर ज़ख़्म ज़ख़्मों की दवा होने लगा है'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,अगर ऐसा करें तो बात बन सकती है :-
'वहाँ पर हाल कैसा है,कहाँ मैं जान पाया
यहाँ तो ज़ख़्म ज़ख़्मों की दवा होने लगा है'

'गुमाँ मेरा यहाँ आकर रफ़ा होने लगा है'
इस मिसरे में क़ाफ़िया सही नहीं है,सही शब्द है "रफ़'अ",'रे'फ़े''ऐन'।
'शमा से मिलके परवाना फ़ना होने लगा है'
इस मिसरे में 'शमा'शब्द12 सही नहीं है,सही शब्द है "शम'अ'21।
Comment by नाथ सोनांचली on November 19, 2017 at 2:21pm
आद0 प्रदीप पांडेय जी बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई आपको।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 19, 2017 at 7:19am
वाहहहह आ0 प्रदीप जी इस खूबसूरत ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाजिर है।
हृदय से बधाई।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 18, 2017 at 9:04pm
बहुत बढ़िया। हार्दिक बधाई आपको आदरणीय प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप' जी।

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