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चांद  का टुकड़ा है या कोई  परी या हूर है 
 उसके चहरे पे चमकता हर घड़ी इक नूर है
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हुस्न पर तो नाज़ उसको ख़ूब था पहले से ही 
 आइने को देख कर वो और भी मग़रूर है
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हार  कर रुकना नहीं मंज़िल भले ही दूर हो           
 ठोकरें  खाकर सम्हलना वक़्त का दस्तूर है
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हौसले  के  सामने तक़दीर  भी  झुक जायेगी
 तू बदल सकता है क़िस्मत किसलिए मजबूर है
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आदमी की चाह हो तो खिलते है पत्थर में फूल
 कौन सी मंज़िल भला इस आदमी  से दूर  है
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ख़ाक  का है पुतला  इंसाँ  ख़ाक में मिल जाएगा
 कैसी दौलत कैसी शुहरत क्यों भला मग़रूर है
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वक़्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता कभी
 वक़्त  के  हाथो  यहाँ  हर  एक शय  मजबूर  है
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उसकि मर्ज़ी के बिना हिलता नहीं पत्ता कोई 
 उसका हर एक फैसला हमको रज़ा मंज़ूर है
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब अफ़रोज़ साहिब ,
ग़ज़ल पे आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया ,
आप सही कह रहे हैं ,,,,,,,,वहां है टाइप नहीं हो पाया , आप का शुक्रिया। 
'' ख़ाक का पुतला है इंसाँ ख़ाक में मिल जाएगा ''
उम्दा ग़ज़ल .दिली मुबारकबाद !!
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