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हर दफा कुछ बात रह जाती है
रेत वाली भीत ढ़ह जाती है।1

था गुमां अपना परिंदों पर भी
इक चिड़ी गुलाम कह जाती है।2

जब्त सारी ख्वाहिशें हैं,कह तो
एक भी कोई निबह जाती है?3

साँझ उतरे जब गगन का रूप ले
नज्र यह प्यासी उछह जाती है।4

चाँद मुट्ठी में नहीं आता अब
चाँदनी अंतर को' मह जाती है।5

इक लहर आसार है साहिल का
क्यूँ हवा हर बार बह जाती है।6

लाख सितम बरपा' लो,सालो भी,
यह जमीं लाचार सह जाती है।7
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Manan Kumar singh on November 6, 2017 at 8:41pm
बहुत बहुत आभार आदरणीय।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 6, 2017 at 8:40pm
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई आदरणीय..सादर
Comment by Manan Kumar singh on November 5, 2017 at 9:16pm
आदरणीय समर जी आभार एवं आदाब जाहिर करता हूँ।
Comment by Samar kabeer on November 5, 2017 at 8:47pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Manan Kumar singh on November 5, 2017 at 9:22am
आभार आपका आरिफ जी।
Comment by Mohammed Arif on November 5, 2017 at 7:46am
आदरणीय मनन कुमार जी आदाब, एक अच्छी ग़ज़ल का प्रयास । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
Comment by Manan Kumar singh on November 4, 2017 at 9:12pm
जैसे मथ देना.....हलचल पैदा करना,गोपाल भाई।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2017 at 7:02pm

चाँदनी अंतर को' मह जाती है।5----भाव स्पष्ट नहीं हो पा रहा आदरणीय .

Comment by Manan Kumar singh on November 3, 2017 at 10:45pm
आभारी हूँ आदरणीय
Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on November 3, 2017 at 9:47pm
आदरणीय मनन सिंह जी उम्दा भाव से भरपूर बेहतरीन गजल लिखा आपने बहुत बहुत बधाई

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