२१२२/ १२१२/ २२ (११२)
 ख़त हमारे अगर जलाता है 
 राख दुनिया को क्यूँ दिखाता है.
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 हम को उम्मीद है तो ग़ैरों से,
 कौन अपनों के काम आता है?
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 सुन रखी होगी आग जंगल की 
 क्यूँ शरर को हवा दिखाता है.
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 शम्स मुझ सा शराबी है शायद 
 शाम ढलते ही डूब जाता है.
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 ज़र्द चेहरा है बाल बिखरे हैं
 इस तरह कौन दिल लगाता है.
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 देख! दुनिया का कुछ नहीं होगा 
 ख्वाहमखाह इस में सर खपाता है.
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 इस पे चलता है रब्त का धंधा
 कौन क्या है औ क्या कमाता है.
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 “नूर” जुगनू सही मगर फिर भी 
 तीरगी को तो मुँह चिढ़ाता है.  
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 निलेश "नूर"
 मौलिक/अप्रकाशित 
Comment
शुक्रिया आ. समर सर ,,,
 मैं विचार करता हूँ... 
 सादर
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