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ग़ज़ल -- इस्लाह हेतु / ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को / दिनेश कुमार

2122--1212--22

ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को
हक़परस्ती है सिर्फ़ रोने को

दिल को पत्थर बना लिया मैंने
ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को

दूर मंज़िल है वक़्त भी कम है
कौन कहता है तुम को सोने को

एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को

किस लिये हैं इन आँखों में आँसू
पास भी क्या था जब कि खोने को

ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को

दाग़ कुछ ऐसे भी हैं दामन पर
अश्क कम पड़ गए हैं धोने को

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 18, 2017 at 5:38pm
जनाब दिनेश साहिब ,छोटी बह्र में ग़ज़ल की अच्छी कोशिश की है आपने, मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मुहतरम समर साहिब ने सही मश्वरा दिया है ,उस पर गौर कीजियेगा
शेर2 उला मिसरा यूँ करके देखिए (एक वो ही नहीं हुआ मेरा ) ,मेरे ख़याल से खिलौने क़ाफ़िया बाक़ी क़ाफिये ,रोने ,खोने ,धोने के साथ सही नहीं है ।देख लीजियेगा
Comment by Ajay Tiwari on October 18, 2017 at 6:28am

आदरणीय दिनेश जी,

प्रभावी ग़ज़ल हुई है. शुभकामनाएं.

सादर 

Comment by दिनेश कुमार on October 17, 2017 at 6:08am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. समर सर, अपनी बहुमूल्य इस्लाह रूपी आशीर्वाद से मुझे नवाज़ने के लिये।

//ग़ज़ल कुछ जल्दी में कही हुई लगती है//आपकी पारखी नज़र को सलाम सर।

//'दिल को पत्थर बना लिया मैंने
ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को'
इस शैर के सानी मिसरे में 'फिर'शब्द भर्ती का है,//
मेरे ख़याल से भर्ती का नहीं है सर। पूरा मतलब दे रहा है,,, दोबारा पिरोने को।
अगर आप पुनः कहेंगे तो मैं change कर दूँगा सर।

//'कौन कहता है तुम को सोने को'
इस मिसरे में 'को'शब्द दो बार मुनासिब नहीं लगता,इसे यूँ कर सकते थे :-
'कौन कहता है तुमसे सोने को'//
जी सर। वैसे एक 'को' गिरते हुए स्वर पर पढ़ा जा रहा है। और 'तुमसे सोने' में स स का बहुत हल्का सा टकराव महसूस हुआ मुझे।
इस क़ाफ़िए में एक शेर और देखिए सर,
मेरा अंदाज़ है फ़क़ीराना
ख़ाक समझा है मैंने सोने को
चलेगा,,,?

//'एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को'
इस शैर के ऊला मिसरे में 'एक''बस'दोनों भर्ती के शब्द हैं,मिसरा यूँ भी कह सकते थे :-
'वो हमारा नहीं हुआ यारो'//
शेर अब कुछ यूं किया है सर, कि
इक निगाहे-करम न मुझ पे हुई
क्या नहीं होता वर्ना होने को

//'ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को'
दोनों मिसरों में 'खिलौनों'और 'खिलौने'भले नहीं लगते।// ठीक कहा सर। यूँ बदलने की कोशिश की है, देखियेगा
चोट से टूटता नहीं है ये अब
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को

//छोटी बह्र में ग़ज़ल कहना आसान नहीं होता//
बिल्कुल सहमत सर। लेकिन,...☺
"मैं शायरी का हुनर जानता नहीं बेशक
अजीब धुन है मुझे क़ाफ़िया मिलाने की"... दिनेश

आपकी मुहब्बतों को दिल से सलाम आ. समर साहब।
Comment by दिनेश कुमार on October 17, 2017 at 6:08am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. आशुतोष साहब।
Comment by दिनेश कुमार on October 17, 2017 at 6:07am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. अफ़रोज़ सहर साहब।
Comment by दिनेश कुमार on October 17, 2017 at 5:21am
हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आ. निलेश सर जी।

//एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को...
इस शेर से मोमिन खान मोमिन याद आ गए //

अवचेतन मन में मोमिन का वो फेमस शेर ही रहा होगा सर, जब यह मिसरे मैंने फिट किये। अब थोड़ा change करते हुए, ( ज़्यादा नहीं ☺), शेर पुनः आपको समर्पित...
इक निगाहे-करम न मुझ पे हुई
क्या नहीं होता वर्ना होने को
Comment by दिनेश कुमार on October 17, 2017 at 5:11am
आ. सलीम रज़ा साहब , तहे दिल से शुक्रिया।
Comment by दिनेश कुमार on October 17, 2017 at 5:10am
आ. वन्दना जी, हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत शुक्रिया।
Comment by Samar kabeer on October 16, 2017 at 7:13pm
जनाब दिनेश कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन ग़ज़ल कुछ जल्दी में कही हुई लगती है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'दिल को पत्थर बना लिया मैंने
ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को'
इस शैर के सानी मिसरे में 'फिर'शब्द भर्ती का है, ग़ौर कीजियेगा, इसे यूँ कर सकते हैं :-
'ख़्वाब इन आँखों में पिरोने को'

'कौन कहता है तुम को सोने को'
इस मिसरे में 'को'शब्द दो बार मुनासिब नहीं लगता,इसे यूँ कर सकते थे :-
'कौन कहता है तुमसे सोने को'

'एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को'
इस शैर के ऊला मिसरे में 'एक''बस'दोनों भर्ती के शब्द हैं,मिसरा यूँ भी कह सकते थे :-
'वो हमारा नहीं हुआ यारो'
वैसे आपके इस शैर से मुझे भी निलेश जी की तरह ये शैर याद आ गया:-
"तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता"

'ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को'
दोनों मिसरों में 'खिलौनों'और 'खिलौने'भले नहीं लगते,शायद इसी लिए बुज़ुर्गों ने कहा है कि छोटी बह्र में ग़ज़ल कहना आसान नहीं होता ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 16, 2017 at 6:20pm
आदरणीय दिनेश जी इस उम्दा रचना पर हार्दिक बढाई साद

कृपया ध्यान दे...

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