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इस्लाह की गुज़ारिश के साथ एक ग़ज़ल पेश है (गुरप्रीत सिंह )

2122 -1212 -22

मुझ पे तू मेहरबां नहीं होता
मैं तेरा क़द्रदां नहीं होता।

बोलने वाले कब ये समझेंगे
चुप है जो बेज़ुबां नहीं होता।

कोई अरमान हम भी बोते. . .गर
मौसम-ए-दिल ख़िज़ाँ नहीं होता।

ख्वाहिशो सीने पे न दस्तक दो
अब मेरा दिल यहां नहीं होता।

जो बचाए किसी को कातिल से
वो सदा पासबाँ नहीं होता।

चाहे कितना उठे धुआँ ऊपर
वो कभी आसमाँ नहीं होता।
(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on July 20, 2017 at 11:11pm
आदरणीय गुरप्रीत जी आदाब, बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल का प्रयास है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब और आदरणीय रवि शुक्ला जी बातों से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 20, 2017 at 8:35pm

आदरनीय गुर प्रीत भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 20, 2017 at 7:35pm
अच्छे भाव हुए है । सादर...
Comment by Samar kabeer on July 20, 2017 at 6:14pm
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'ख़्वाहिशो सीने पे न दस्तक दो
अब मेरा दिल यहां नहीं होता'

सीने पर दस्तक नहीं दी जाती है,दिल पर दी जाती है,दूसरी बात सानी मिसरे में रदीफ़ काम नहीं कर रही है,बहतर है इस भाव को दूसरे अंदाज़ में कहें ।
इसी भाव को मैंने एक ग़ज़ल में यूँ कहा था :-
"हमने दिल को बहुत तलाश किया
जिस जगह था,वहाँ नहीं मिलता"

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