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धूप की तिरछी किरणें

बारिश की बूँदें

रंभाती हवाएँ

सभी एक संग ...

धूल के कण

मानो उड़ रहे हैं सपने

विचित्र रूप ओढ़े है धरती

सारा कमरा

चौकन्ना हो गया है

असंतोष मुझको है गहरा

लौट-लौट आ रहे हैं

दर्दीले दृश्य दूरस्थ हुई दिशाओं से

भूली भीषण अधूरी कहानी-से

उलझे ख़याल ... 

तुम्हारे, मेरे

मकड़ी के जाल में अटके जैसे

हमारे सारे प्रसंग

जिनका आघात

हम दोनों को लगा

सोचता हूँ, यह अंत है खेल का

या, एक और खेल है अंत में

या, तैरते-उतरते

पुण्य और पाप को संकेतित करती

यह अंतिम पलों की लीला है क्या

कि हवा में घुल-घुल कर

प्रकाश-बिम्ब-से

स्पष्ट हो रहे हैं मानो अब अर्थ व्यर्थ

अजनबी हुई अकुलाती आकांक्षाओं के

आत्मा के आस-पास शायद इसीलिए

साक्षी हैं श्रद्धा के द्वार पर

ध्वनिगुंजित पल

स्वप्निल आत्मीयता की उष्मा के

दर्दभरी संकुचित दूरी में भी

स्नेह के सत्य में मेरे अटूट विश्वास के

और, जो हुआ, सही था, या गलत हुआ

तुम्हारी सोच में नि:संदेह उसमें

कहीं न कहीं मेरे अपराध के

काल-सर्प-से इस अंतिम समय में

किस-किस असंग प्रसंग में

क्या-क्या सँवारेंगे हम

कि जिस वेदना में पलती हो तुम

छुपने के लिए उसीसे

कुछ और गहरे

गहरे उतर जाती हो मुझमें

मुझको .. जाते इन पलों में

उसकी भी वेदना है

         ---------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by vijay nikore on July 19, 2017 at 6:49pm

भावनाएँ किस प्रकार पन्ने पर आकार लेती हैँ, लगता है कि मैं केवल माध्यम हूँ । आप जैसे अच्छे लेखक से सराहना मिलती है और मनोबल बढ़ जाता है। आपका हृ्दयतल से आभार, आदरणीय भाई समर जी।

Comment by Samar kabeer on July 18, 2017 at 2:30pm
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत ख़ूब इस कविता का प्रवाह देखते ही बनता है,अंतिम समय के दृश्य को किस ख़ूबसूरती से शब्दों में ढाला है, ये आप ही का हिस्सा है,हमेशा की तरह एक बहतरीन कविता से मंच को नवाज़ा है आपने,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mohammed Arif on July 18, 2017 at 7:44am
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब, सुंदर मन-भावन , आकर्षक भावों की थाली परोसी है आपने । मज़ा आ गया । कहीं-कहीं वर्तनीगत अशुद्धियाँ अवश्य है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by vijay nikore on June 3, 2017 at 3:05pm

//आन्तरिक वेदना दर्शा रही है आपकी यह रचना बेहद सुंदर प्रस्तुति //

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया कल्पना जी।

Comment by vijay nikore on June 3, 2017 at 3:04pm

//बहुत सुंदरता से भावों को शब्दों में पिरोया है..अंतर्द्वंद जो इंसान के अंदर अक्सर चलता रहता है //

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आदरणीय बृजेश जी।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 3, 2017 at 7:22am

आन्तरिक वेदना दर्शा रही है आपकी यह रचना बेहद सुंदर प्रस्तुति 

आत्मा के आस-पास शायद इसीलिए

साक्षी हैं श्रद्धा के द्वार पर

ध्वनिगुंजित पल

स्वप्निल आत्मीयता की उष्मा के

दर्दभरी संकुचित दूरी में भी

स्नेह के सत्य में मेरे अटूट विश्वास के

जो हुआ, सही था, या गलत हुआ

तुम्हारी सोच में नि:संदेह उसमें

कहीं न कहीं मेरे अपराध के

बहुत खूब | हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी |

Comment by vijay nikore on June 2, 2017 at 6:46am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई गिरिराज जी।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 31, 2017 at 12:51pm
वाह आदरणीय..बहुत सुंदरता से भावों को शब्दों में पिरोया है..अंतर्द्वंद जो इंसान के अंदर अक्सर चलता रहता है..बेहतरीन अभिव्यक्ति..सादर
Comment by vijay nikore on May 24, 2017 at 1:12pm

//अंतर्मन के भावों का बहुत ही प्रभावी चित्रण हुआ है//

इस आत्मीय सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आदरणीय सुशील जी

Comment by vijay nikore on May 24, 2017 at 1:11pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आदरणीय श्याम नारायण जी

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