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गजल(पा लिया , खोया किसीने.....)

2122  2122  2122 212 

पा लिया, खोया किसीने,चल रहा यह सिलसिला
ख्वाहिशें अनजान थीं जो कुछ मिला अच्छा मिला।1

गर्दिशों के दौर में अरमान मचले कम नहीं
पर सरे पतझड़ यहाँ उम्मीद का अँखुआ खिला।2

घाव देकर हँस रहे हैं आजकल बेख़ौफ़ वे
कौन अपनों से करेगा बोलिये फिर से गिला?3

डर गये जीते शज़र सब आँधियों के जोर से
सूखता-सा जो खड़ा है कब सका कोई हिला?4

ले घड़ा छोटा बहुत सब माँगते फिरते समद
माँगते उतना कि प्यासे होंठ को देते पिला।5

बुद्धिमानों का यहाँ <जमघट लगा हर मोड़ पर /span>
बिलबिलाता आदमी कब से कहो कुछ भी मिला?6

झूठ का धंधा चला है सच हुआ कुर्बा बहुत
थक गया है आदमी यूँ ढूँढ़ता अपना सिला।7

बेचता ईमां मुसाफिर साँस लेने के लिये।
भाव है उस जिंस का जिसमें रहे कुछ भी मिला।8

वीरताओं की कथाएँ केंचुए गढ़ने लगे
रीढ़ लज्जित है अभी लगता 'मनन' भी पिलपिला।9
'मौलिक व अप्रकाशित'@ 

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Comment by Manan Kumar singh on April 10, 2017 at 7:59pm
आदरणीय लक्ष्मण भाई जी, बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by Manan Kumar singh on April 10, 2017 at 7:58pm
जी शुक्रिया आदरणीय समर जी।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 10, 2017 at 12:13pm

आदरणीय भाई मनन कुमार जी, इस गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by Samar kabeer on April 10, 2017 at 10:56am
मिसरा अब ठीक है,।
Comment by Manan Kumar singh on April 9, 2017 at 9:29pm
आदरणीय समर जी आदाब व शुक्रिया,आपका सुझाव कीमती है।निम्नवत परिमार्जन करता हूँ:
बेचता ईमां मुसाफिर साँस लेने के लिये।
सादर।
Comment by Manan Kumar singh on April 9, 2017 at 9:24pm
आदरणीय आरिफ भाई आदाब व शुक्रिया,स्नेह बनाये रखें,सादर।
Comment by Samar kabeer on April 9, 2017 at 3:49pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
कुछ मिसरों में व्याकरण दोष हैं,देखियेगा ।

'बेचना पड़ता इमाँ भी साँस लेने के लिये'
इस मिसरे में 'इमाँ'शब्द ग़लत है,सही शब्द है "ईमाँ",ये मिसरा इस तरह कह सकते हैं :-
'बेचना पड़ता है ईमाँ सांस लेने के लिये'
Comment by Mohammed Arif on April 9, 2017 at 2:42pm
आदरणीय मनन कुमार जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारक़बाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी बेशक़ीमती राय से अवगत करवाएँगे ।

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