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बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को (तरही ग़ज़ल 'राज')

221  1221 1221  122

अपनाया मुहब्बत में पतिंगो  ने क़जा को

बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को  

 

है जह्र पियाले में ये मीरा को पता था

बे खौफ़ मगर दिल से लगाया था  सजा को

 

जो लोग  सदाकत से करें पाक मुहब्बत

वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को

 

आँधी का नहीं खौफ़ चरागों को भला फिर   

समझेंगे उसे क्या जरा ये कह दो हवा को 

 

देखी वो जवाँ झील लिए नूर की गागर

लो चाँद दीवाना चला अब छोड़ हया को 

  

जब रोज  जलाता रहे  खुर्शीद तपिश से

वो फूल तरसते हैं सदा  बाद-ए-सबा को

 

सजदे में बिछाए हैं बगीचों ने  सितारे 

रोका न करो अब्र यूँ सूरज की जिया को

 

दुनिया ये  मुहब्बत पे भरोसा न करेगी  

तोड़ा न करो यार कभी रस्मे वफा को

---------राजेश कुमारी ‘राज’

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Comment by नाथ सोनांचली on February 17, 2017 at 10:29pm
आद0 बहन राजेश कुमारी जी सादर अभिवादन। उम्दा गजल कही आपने, कुछ शैर तो सीधे दिल पर असर करते है। शेष उस्ताद समर साहब की इस्लाह के बाद तो ग़ज़ल और अच्छी हो गयी। आपको इस उमा गजल पर दाद के साथ बधाई निवेदित करता हूँ।
Comment by Samar kabeer on February 17, 2017 at 10:02pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
इस समय मंच पर आने का मेरा मक़सद ये था कि जनाब डॉ गोपाल नारायन साहिब की ग़ज़ल पर मुझे अपनी प्रतिक्रिया देनी थी और उसके बाद मंच से दो हफ़्ते की छुट्टी की दरख़्वास्त पेश करना थी,क्यूँकि आजकल मेरी तबीअत मुझे इजाज़त नहीं देती की मैं मंच पर अपनी सक्रीयता दिखा सकूँ । जनाब गोपाल नारायन जी की गज़ल से पहले आपकी ग़ज़ल पर नज़र पड़ गई तो सोचा की आपकी ग़ज़ल पर अपने विचार आपसे साझा कर लूँ ।

मतले के ऊला मिसरे में 'पतंगों' को "पतिंगों" कर लें ।

"बे खौफ़ मगर दिल से लगाई थी सजा को"

इस मिसरे में 'लगाई थी' शब्द आपने 'सज़ा' की वजह से लिखा है कि सज़ा स्त्रीलिंग है,लेकिन 'दिल' शब्द इसे नकार रहा है ,इसलिये मुनासिब यह होगा की 'लगाई थी' की जगह "लगाया था" कर लें ,ये बहुत बारीक नुक्ता है बहना,इस पर ग़ौर करें :-

"बे ख़ौफ़ मगर दिल से लगाया था,सज़ा को"

'जो दिल से सदाकत से करें पाक मुहब्बत'

इस मिसरे में दो बार 'से' शब्द का इस्तेमाल मिसरे को कमज़ोर कर रहा है,इसे शायद व्याकरण की ग़लती कहेंगे ,ये मिसरा मेरे ख़याल में यूँ होना चाहिये :-

"जो लोग सदाक़त से करें पाक मुहब्बत"

'दिन रात जलाता जिन्हें खुर्शीद तपिश से
वो फूल पुकारे हैं वहाँ बादे सबा को'

इस शैर के ऊला मिसरे में ख़ुर्शीद का दिन रात जलाना मन्तिक़ (तार्किकता) के ख़िलाफ़ है क्यूँकि सूरज दिन में जलाता है रात में नहीं और इस शैर के सानी मिसरे में 'वहाँ' शब्द भर्ती का है,चूँकि ऊला मिसरे में सूरज दिन रात जला रहा है ,इस लिहाज़ से सानी मिसरे में 'पुकारेंगे' शब्द काम तो कर रहा है मगर मज़ा नहीं दे रहा,मेरे ख़याल से ये शैर यूँ होना चाहिये इसमें आपके भाव भी नहीं बदलेंगे :-

"जब रोज़ जलाता रहे ख़ुर्शीद तपिश से
वो फूल तरस्ते हैं सदा बाद-ए-सबा को"

ये नुक्ता भी बहुत बारीक है बहना,अगर आप इस तक पहुँच गईं तो मेरा कहना सर्थक हो जायेगा ।

बाक़ी अशआर बहुत उम्दा हैं,गिरह भी ख़ूब लगाई है,बाक़ी शुभ-शुभ ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 17, 2017 at 7:08pm

आद० मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया |

Comment by Mohammed Arif on February 17, 2017 at 5:42pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, ग़ज़ल का हर शे'र उम्दा । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल कीजिए ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 17, 2017 at 1:07pm

आद० तेजवीर सिंह जी, ग़ज़ल के सर्वप्रथम पाठक के रूप में आप द्वारा दी गई इस दाद के प्रति दिल से शुक्रगुजार हूँ बहुत बहुत शुक्रिया .

Comment by TEJ VEER SINGH on February 17, 2017 at 12:58pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी। हार्दिक बधाई।बेहतरीन गज़ल।

जो दिल से सदाकत से करें पाक मुहब्बत

वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को|

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