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"आखिर क्यों नहीं कर लेती उससे शादी, जब साथ साथ रहती हो तो दिक्कत क्या है", उसने घर से निकलते हुए बेटी को टोका| बेटी ने एक बार उसकी तरफ देखा और फिर आगे जाने लगी|
"अभी तुमको नहीं समझ में आ रहा है, कुछ साल बाद समझोगी| आखिर कुछ तो सोचो भविष्य के लिए", उसने फिर से समझाने की कोशिश की|
अबकी बार बेटी पलटी और वापस कमरे में आ गयी| उसके पास आकर उसने माँ का हाथ अपने हाथ में लिया और प्यार से बोली "तुम्हें क्या दिक्कत है माँ, हम लोग खुश हैं और जब तक सब ठीक है, साथ रहेंगे"|
"लेकिन कोई बंधन तो होना चाहिए साथ रहने के लिए", उसने फिर से कहा|
"कैसा बंधन माँ, तुमने भी तो शादी की थी और सारे बंधनों में तुम्हीं बंधती रही, पापा तो किसी और बंधन में बंध गए| और उस बंधन के कुछ निशान आज भी तुम्हारे बदन पर दिखते हैं, इसके बाद भी तुम यह सब कह रही हो"|
वह थोड़ी देर बेटी को देखती रही, अचानक उसका हाथ अपने चेहरे पर चला गया| एक कटे का दाग था जिसे वह कितनी भी कोशिश के बाद मिटा नहीं पायी थी|
"तुम्हारा बंधन है ना मेरे लिए, कहीं भी रहूंगी, तुम्हारा हाथ तो रहेगा ही मेरे सर पर| अगली बार ज्यादा दिन की छुट्टी लेकर आउंगी तो खूब घूमेंगे हम दोनों", कहती हुई बेटी ने प्यार से उसके ललाट पर एक चुम्बन दिया और निकल गयी|
उसे लग रहा था जैसे आज वह कटे का दाग मिट गया था|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on December 28, 2016 at 4:03pm

बहुत बहुत आभार आ कल्पना भट्ट जी 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 28, 2016 at 1:40pm
वाह आदरणीय विनय सर । गज़ब की कथा हुई है । अलग मिज़ाज लिए हुए । हार्दिक बधाई ।
Comment by विनय कुमार on December 28, 2016 at 1:30pm

बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी

Comment by विनय कुमार on December 28, 2016 at 1:30pm

बहुत बहुत आभार आ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी इस हौसला बढ़ाने वाली टिपण्णी के लिए| इस मुद्दे पर खुले दिमाग से सोचने की और निष्कर्ष निकालने की जरुरत है  

Comment by विनय कुमार on December 28, 2016 at 1:28pm

बहुत बहुत आभार आ प्रतिभा पांडे जी इस हौसला बढ़ाने वाली टिपण्णी के लिए 

Comment by विनय कुमार on December 28, 2016 at 1:27pm

बहुत बहुत आभार आ मिथिलेश जी, बड़ा मुश्किल होता है ऐसे में फैसला कर पाना

Comment by TEJ VEER SINGH on December 25, 2016 at 6:15pm

हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी। बहुत शानदार प्रस्तुति ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 24, 2016 at 3:01pm

आ० आज की सोच को आपने बखूबी रूपायित किया . पर यह सोच सही निदान है इस पर अनुभव की बहस भी आवश्यक है . फिलहाल अभिनव परिवेश में कथा आधुनिक सोच को परिभाषित करने ने पूरी तरह सफल है .

Comment by pratibha pande on December 24, 2016 at 8:38am

 आपने कोई अंत थोपने की कोशिश नहीं की, और ये ही आपकी कथा का सबसे सशक्त पक्ष है ...कई बार सकारात्मकता के बोझ में अंत नाटकीय हो जाता है ......बहुत बढ़िया रचना   हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विनय जी .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2016 at 1:43am

आदरणीय विनय जी, बहुत झन्नाटेदार लघुकथा लिखी है आपने. वाकई दिमाग झन्ना गया. समस्या के इस निदान को न तो स्वीकार कर पा रहा हूँ और न ही इनकार कर पा रहा हूँ. बधाई इस प्रस्तुति पर. 

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