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भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में

धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे

अनुभूत भीषण एकान्त

विद्रोही भाव

जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है

कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार

नव-आविष्कृत बहाने लिए

अमुक स्थिति को ठेल कर

वहीं का वहीं लौटा लाता है

मकबरे के कमरों में गूँजती

गहन वेदना की पुकार

हज़ारों चिन्ताओं की

नपुंसक इच्छाओं की

पीड़ा के लौटते हुए पैरों की पदचाप

नाखुनों में अब दर्दीली हुई मान्यताओं के

भुरते पलस्तरों की मिट्टी

उन सुनसान दीवारों को नाखुनों से नोच-नोच

कुछ मिला ? ..  क्या मिला ?

मकबरा खड़ा शिलामूर्ति

निज के बाहर कोलतारी हवाएँ

भीतर विवश-वेदना, निराशा, द्वंद्व की साँय-साँय

कमरॊं के नीचे मकबरे के भीतरी तहखानों में

ख्यालों की कोई काली सुरंग हर बार

वहीं का वहीं छोड़ जाती है जहाँ

अनदेखे अनजाने अप्रतिहत

ज़िन्दगी से ऊब कर कितनी सच्चाइयाँ

जीने का एक बहुत बड़ा झूठ बन जाती हैं

--------

-- विजय निकोर 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on October 19, 2016 at 10:55pm

//बहुत ही दार्शनिक परन्तु जीवन के चढ़ाव के यथार्थ की गहरी सच्चाईयों को समेटे बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति //

इन शब्दों से मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय जी।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 17, 2016 at 4:37pm
वाह । जीवन के उतार चढ़ाव को बहुत सुन्दर रूप से पिरोया है । बेहद सुन्दर रचना हुई है आदरणीय । हार्दिक बधाई ।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 16, 2016 at 10:35am
जीवन और जमाने की यथार्थता को बहुत ही कारीगरी से शब्दों में उकेरा है आपने आदरणीय विजय निकोर जी। सादर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on October 14, 2016 at 6:33am
ज़िन्दगी से ऊब कर कितनी सच्चाइयाँ
जीने का एक बहुत बड़ा झूठ बन जाती हैं।
बहुत ही दार्शनिक परन्तु जीवन के चढ़ाव के यथार्थ की गहरी सच्चाईयों को समेटे बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति , आदरणीय विजय निकोर जी , बधाई , सादर।

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