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हार ...

ये इश्क-ओ-मुहब्बत के
बड़े अज़ब नज़ारे हैं
उनके दिए दर्दों से
हमने
तन्हा लम्हे सँवारे हैं
लोग
डरते होंगे ज़ख्मों से
मगर
सच कहते हैं
ये ज़ख्म
हमें बहुत प्यारे हैं
रिस्ते ज़ख्मों की
हर टीस पे
हमने सनम पुकारे हैं
अंगार बन के उठती हैं
यादें उनकी
तन्हाई में
कैसे बताएं ज़माने को
हम क्या जीते
क्या हारे हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on October 16, 2016 at 2:48pm

आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण'  जी प्रस्तुति को अपने स्नेह से मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 15, 2016 at 8:19pm
आदरणीय सुशील सरना जी बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by Sushil Sarna on October 14, 2016 at 1:50pm

आदरणीय तस्दीक साहिब प्रस्तुति को अपने स्नेह से मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on October 14, 2016 at 1:49pm

आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति पर आपकी हौसला अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रिया। इंगित पंक्ति से मेरा अभिप्राय जब जब ज़ख्मों  में दर्द भरी टीस हुई है हमने अपना सनम,मुहब्बत,प्यार को पुकारा है। एक भाव है सर बस। इस स्नेह का हार्दिक आभार। 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 12, 2016 at 8:58pm

मोहतरम जनाब सुशील  सरना साहिब ,  ग़ज़ल के रंग में  डूबी  इस सुन्दर कविता के लिए दिल से मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं 

Comment by Samar kabeer on October 12, 2016 at 5:25pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,हमेशा की तरह बहुत सुंदर कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
14वीं पंक्ति "हमने सनम पुकारे हैं"समझ नहीं सका ?

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