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2122 1212 22

जुगनुओं की बरात मुश्किल है।
साथ हो कायनात मुश्किल है।।

चांदनी गर बिखर नहीं जाती
इन निगाहों से मात मुश्किल है।।

यूँ हकीकत छुपी नहीं रहती।
आईने से निजात मुश्किल है।।

रात के बाद निकलता है दिन।
कैसे कह दूँ हयात मुश्किल है।।

दो जहां को सवाँर दूँ तब भी।
इस जहां की बिसात मुश्किल है।।

फासले दरमियाँ न आ पाते।
चुगलियों से निजात मुश्किल है।।


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by अलका 'कृष्णांशी' on October 2, 2016 at 5:08pm
आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी रचना पसंद करने के लिए धन्यवाद।सादर
Comment by अलका 'कृष्णांशी' on October 2, 2016 at 5:05pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना पसन्द करने के लिए धन्यवाद ,,,अभी सीख रही हु ,होसला अफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया।सादर
Comment by अलका 'कृष्णांशी' on October 2, 2016 at 5:01pm
आभार आदरणीय समर कबीर जी,रचना को समय देने और होसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत शुक्रिया ,आपके सुझाव अनुसार चोथे शेर में काफ़िया ठीक करती हूँ,,,,
कृपया बताने का कष्ट कीजिये ये तक़ाबुल-ए-रदफ का दोष क्या होता है,,,,,
मैंने ग़ज़ल की पाठशाला से ही थोड़ा बहुत पढ़ कर ग़ज़ल लिखने की कोशिश की है,,,,इस दोष के बारे में ज्ञान नहीं है।सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 3:16pm

वाहह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल....बधाइयाँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 9:43am

आदरणीया अलका जी , बहुत अच्छी गज़ल हुई है हार्दिक बधाइयाँ । आदरणीय समर भाई जी की बातों का ख्याल कीजियेगा ।

Comment by Samar kabeer on October 1, 2016 at 3:01pm
मोहतरमा अलका जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
चौथे शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष है ।
आखरी शैर में 'हालात'क़ाफ़िया मुनासिब नहीं,लय बाधित हो रही है,यहां "निजात" क़ाफ़िया ठीक रहेगा,अगर आप मुनासिब समझें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 1, 2016 at 1:37pm

ग़ज़ल पर प्रयास अच्छा है आ. अलका चंगा जी, एक- दो जगहों पर टंकण त्रुटि है ज़रा देख लीजिएगा

Comment by Kalipad Prasad Mandal on September 30, 2016 at 5:33pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही  है  आपने आ. अलका चंगा जी 

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