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भाई साहब सबकी अर्थी, बस कन्धों पर जानी है-----इस्लाह के लिए ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2
माटी माटी जुटा रही पर जीवन बहता पानी है
स्वार्थ लिप्त हर मनुज हुआ कलयुग की यही कहानी है

मन की आग बुझे बारिश से, सम्भव भला कहाँ होगा
तुम दलदल की तली ढूंढते ये कैसी नादानी है

भौतिकता तो महाकूप है मत उतरो गहराई में
दर्पण कीचड़ युक्त रहा तो मुक्ति नहीं मिल पानी है

बीत गया सो बीत गया क्षण, बीता अपना कहाँ रहा
हर पल दान लिए जाता है समय शुद्ध यजमानी है

स्वर्ण महल अवशेष न दिखता हस्तिनापुर बस कथा रहा।
बाबर वंश भिखारी है अब सबकी यही कहानी है

स्वर्णजड़ित सिंहासन बैठो या झिलगंहिया खटिया पर।
भाई साहब सबकी अर्थी बस कंधों पर जानी है

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 9:54am
आदरणीया अमिता जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 9:50am
जयनीत भाई बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 9:50am
आदरणीय सुनील प्रसाद जी बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 9:49am
आदरणीय श्रेष्ठवर कालीप्रसाद सर सादर आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 9:36am

आदरनीय पंकज भाई , अच्छी ग़ज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on October 1, 2016 at 5:26pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मैने आपको कोरियर से किताब भेजी,मिली कि नहीं ?

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 1, 2016 at 1:44pm

आ. पंकज जी अच्छी ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by amita tiwari on September 30, 2016 at 8:47pm

झिलगंहिया खटिया पर

बहुत सुंदर शब्द -प्रयोग ..बधाई 

Comment by जयनित कुमार मेहता on September 30, 2016 at 3:36pm
आदरणीय पंकज जी, अत्यंत सुन्दर प्रस्तुति के लिए दिली दाद क़ुबूल करें!
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 30, 2016 at 10:08am
दार्शनिक भावों से उत्प्रेरित सुंदर ग़ज़ल हुई है आदरणीय दिली दाद आपको।

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