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ग़ज़ल - चाँदनी, चाँदनी सी लगती थी ( गिरिराज भंडारी )

चाँदनी, चाँदनी सी लगती थी

2122   1212    22 /112

बात जो अनकही सी लगती थी

वो ही बस ज़िन्दगी सी लगती थी

 

मर गई सरहदों के पास कहीं

सच कहूँ, वो खुशी सी लगती थी

 

हाँ , न थे गर्द आसमाँ में, तब

चाँदनी, चाँदनी सी लगती थी

 

रात भी इस क़दर न थी तारीक  

उसमें कुछ रोशनी सी लगती थी

 

दुँदुभी साफ बज रही थी उधर

पर इधर बाँसुरी सी लगती थी

 

थी तबस्सुम जो उसकी सूरत पर

जाने क्यूँ बेबसी सी लगती थी

 

थी बनावट भी उस जमाने में

यूँ कि, वो सादगी सी लगती थी
******************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by डॉ पवन मिश्र on September 25, 2016 at 7:22am
आद. गिरिराज जी,,,क्या खूब ग़ज़ल कही है आपने। लाजवाब कथ्य और बेहतरीन शिल्प,,,,आकाश भर बधाई
Comment by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on September 24, 2016 at 12:32pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी शानदार ग़ज़ल हेतु बधाई प्रेषित है । सादर !!

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 22, 2016 at 1:21pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत ही मीठी गजल के लिए मीठी सी बधाई प्रेषित है । सादर ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2016 at 8:34pm

आदरणीय सुशील सरना भाई , ग़ज़ल की मुखर सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।

Comment by Sushil Sarna on September 21, 2016 at 8:25pm

बात जो अनकही सी लगती थी
वो ही बस ज़िन्दगी सी लगती थी

मर गई सरहदों के पास कहीं
सच कहूँ, वो खुशी सी लगती थी

वाह आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब क्या मंज़रकशी की आपने .... दिल खुश हो गया ऐसे अशआर पढ़ कर .... इन अहसासों का सृजन करती आपकी कलम को सलाम सलाम सलाम।

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