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बुढ़ापे का सफ़र

बुढ़ापे की पुकार

सहम जाता हूँ मैं
रात के सन्नाटे से
ना छोड़ना मुझे बेटा
कभी किसी बहाने से
मैं तब भी था भूखा जब
तेरी पैंट फट गयी थी
और तू ले गया था
पैसे मेरे सरहाने से
तब तू रोया करता था
हँसी हमें सूझती थी
आज हँसी तुझे भी
आती हैं पर
मेरे रो जाने से
मालूम है मुझे भी
कंधों पर बोझ तेरे
ज़रूरत से ज़्यादा है
पर मेरे कंधों के भोज
से तेरा बोझ आधा है
तुम तीनों बच्चे और
तेरे दादा दादी साथ थे
घर सूना हो गया था
तेरी माँ के चले जाने से
मैं जानता हूँ
वृद्ध आश्रम में यार
बोहत मिलते हैं पर
इस आँगन के फ़ूल
वहाँ नहीं खिलते हैं
लोग पूछेंगे मोहन
तेरे पिता कहा गए
सुखी डाल पर सूखे
कपड़े सूखते थे
कहाँ गए

बाप को रुला के
फकर से खड़ा है तू
माथे पर नहीं है तेरे
लकीर शर्माने की
मुझे भी अब आदत
हो गयी नींद में
बड़बड़ाने की
सुबह होते ही तुझसे
यूँ ही
फटकार ना मिले
उम्मीद अब नहीं रही
तुझसे प्यार एतबार की

ज्ञान नहीं आया तुझे
दो अक्षर पढ़ जाने से
चल ले चल उस सन्नाटे
में तू ,मुझे किसी बहाने से
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on October 1, 2016 at 1:51pm

वाह ! अच्छी अभिव्यक्ति है आदरणीया दीपू जी सादर.

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 15, 2016 at 10:48pm

मार्मिक प्रस्तुति ...बधाई 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 15, 2016 at 2:25pm

मार्मिक प्रस्तुति | अच्छा  प्रयास | कुछ त्रुटिया रह गई, जैसे - पैसे मेरे सरहाने (सिरहाने) से, पर मेरे कंधों के भोज (बोझ)
से तेरा बोझ आधा है, बोहत या बहुत | सुंदर रचना के लिए बधाई 

Comment by S.S Dipu on September 14, 2016 at 11:09pm
धन्यवाद आप सभी का । आपके इतने प्रोत्साहन भरे शब्दों से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है ।
Comment by ram shiromani pathak on September 14, 2016 at 8:35pm
भाव अच्छे लगे।बधाई अदानीया
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 14, 2016 at 8:24pm
आदरणीया दीपू जी यथार्थ को दर्शाती सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by amita tiwari on September 14, 2016 at 8:16pm

मार्मिक 

Comment by Meena Pathak on September 14, 2016 at 2:01pm

मार्मिक प्रस्तुति ...बधाई 

Comment by Sushil Sarna on September 14, 2016 at 1:48pm

आदरणीया  Dipu mandrawal     जी इस मार्मिक यथार्थ की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई। 

Comment by Samar kabeer on September 14, 2016 at 11:55am
मोहतरमा दीपू जी आदाब,बहुत ही मार्मिक कविता लिखी आपने,आज के समय में यही ही रहा है,बधाई स्वीकार करें इस प्रस्तुति पर ।

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