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गजल(बंदिशों को तोड़कर....)

2122 2122 2122 212
बंदिशों को तोड़कर हलचल करूँगाआज भी
बात मन की बेझिझक मैं तो कहूँगा आज भी।1

फिर गयीं नजरें बहुत ही क्या हुआ कुछ गम नहीं,
आँख में बनकर सपन मैं तो रहूँगा आज भी।2

ले गये कितने बवंडर तोड़ कर कलियाँ मगर,
डाल पर इक फूल बन मैं तो सजूँगा आज भी।3

टूटती अबतक रही हैं गीत की लड़ियाँ मगर,
राग बन हमराज का मैं तो बजूँगा आज भी।4

लुट गये कितने सपन बेढ़ब फिजाओं के तले,
इक घरौंदा रेत पर फिर से रचूँगा आज भी।5

होंठ जलते हैं बहुत अब अंतरों में जल नहीं,
पत्थरों के बीच बन सरिता बहूँगा आज भी।6

मत समझ मुझको हिमालय दाह रखता हूँ बहुत,
चूम ले जो इक किरण फिर तो ढ़लूँगा आज भी।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on September 8, 2016 at 11:01am
आदरणीय गिरिराज भाई उत्साह वर्द्धन हेतु आपका शुक्रिया।
Comment by Manan Kumar singh on September 8, 2016 at 10:59am
आदरणीय रामबली भाई जी,हौसला आफजाई के लिए आपका शुक्रिया।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 4:37pm

आदरनीय मनन भाई , खूबसूरत गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ आपको । आ. समर भाई की बातों का खयाल कीजियेगा ।

Comment by रामबली गुप्ता on September 7, 2016 at 5:49am
वाह आद० मनन भाई जी बहुत ही सुंदर ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को। आकाश भर बधाई लीजिये।
Comment by Manan Kumar singh on September 6, 2016 at 10:13pm
आदरणीया प्रतिभाजी, रचना को मान देकर आपने मुझे भी धन्य किया है।आभारी हूँ आपका,सादर।
Comment by pratibha pande on September 6, 2016 at 7:17pm

ले गये कितने बवंडर तोड़ कर कलियाँ मगर,
डाल पर इक फूल बन मैं तो सजूँगा आज भी।..  वाह ..सकारात्मकता से भरी इस प्रभावशाली ग़ज़ल पर आपको बधाई प्रेषित है आदरणीय मनन जी 


Comment by Manan Kumar singh on September 5, 2016 at 2:17pm
मोहतरम समर कबीर साहब,आपकी नजरें इनायत का दिली शुक्रिया स्वीकार करें।आपके उद्गार मेरे लिए मार्ग में चमचमाते मील के पत्थर हैं,आगे की यात्रा आसान करने के लिए।आपकी इस्लाह पर गौर करता हूँ अभी,सादर।
Comment by Samar kabeer on September 5, 2016 at 11:53am
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर का दोष आरहा है, "बहुत तो" इसे इस तरह कर लेंगे तो ये दोष निकल सकता है:-
फिर गईं नज़रें बहुत सी,क्या हुआ कुछ ग़म नहीं"

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