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चुप्पी /कान्ता रॉय

एक चुप्पी इधर,एक चुप्पी उधर भी
चुप रहने का यह क्षण,दरअसल शोर था
झंझावात था

आमादा था निगलने पर
रिश्ते को रिश्ते के साथ ,जो आस्तित्वहीन था

उस आस्तित्वहीन की गर्माहट
धूप में चमकते,ताजमहल -सा तप्त था

दिल, दिमाग,नजर और  मन

छा कर बियाबानों के सन्नाटो में  
प्रपंचों के मायाजाल को,चीर ,ध्वस्त कर
लॉन के मखमली घास पर फैल
नर्म नर्म कोमल,रेंगती हुई सर्द सी चुप्पी अब
धीरे से करवट बदल रही थी

शोर में लिप्त, पगली-सी चुप्पी
हैरान हो कई कोणों से
स्वंय को घूरती नजर आती है

चुप की भट्ठी में, जल कर  तृप्त हो 
निशब्दता की तलाश में
शोर के खिलाफ बहुत दूर
निकल  जाने को बेकल  है

विवशता ने, घेरे में जकड़ लिया है
इस बार चुप्पी, हाथ नहीं लगने वाली
उसने भी नया घर,तलाश लिया है

अंगुलियों ने अंगुलियों से,अनुबंध कर
बाजुओं ने हासिल किया
अपनी आगोश में ताजमहल को

अबकी चुप्पी ने, मुड़कर नहीं देखा
कनखियों ने देखा कनखियों को, और हँसी पर जमकर हँसता रहा।


मौलिक और अप्रकाशित 

 

Views: 717

Comment

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Comment by kanta roy on September 4, 2016 at 2:07pm
तहेदिल आभार आपका आदरणीय समर कबीर जी रचना पसंदगी के लिये।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 3, 2016 at 5:25pm
बहुत खूब आदरणीय कान्ता जी । इस रचना के लिए बधाई ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 3, 2016 at 3:53pm
वन्दनीया कांता दीदी हार्दिक बधाई इस सुंदर अतुकांत के लिए।
Comment by Sushil Sarna on September 3, 2016 at 3:05pm

शोर में लिप्त, पगली-सी चुप्पी
हैरान हो कई कोणों से
स्वंय को घूरती नजर आती है

वाह आदरणीया कांता रॉय जी कितने खूबसूरत लफ़्ज़ों में आपने चुप्पी के अहसासों को जिया है। महसूस करना अलग बात है मगर अहसासों को लफ़्ज़ों में बांधना आसां नहीं होता। इस अंतर्द्वंद से भरी चुप्पी की प्रस्तुति पर बन्दे की हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by Samar kabeer on September 3, 2016 at 2:53pm
मोहतरमा कांता रॉय जी आदाब,बहुत बढ़िया कविता हुई,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by kanta roy on September 3, 2016 at 2:11pm
आभार आपका आदरणीया प्रतिभा जी रचना पसंदगी के लिये। आखिरी पंक्ति में कुछ शब्द प्रकाशित होते हुए छूट गये है जो इस प्रकार होंगे।
"कनखियों ने देखा कनखियों को,
और हँसी पर जमकर हँसता रहा।"

आभार मुझे रचना पर सचेत करने के लिये। मै अभी संशोधन करती हूूँ। सादर।
Comment by pratibha pande on September 3, 2016 at 1:11pm

विवशता ने, घेरे में जकड़ लिया है 
इस बार चुप्पी, हाथ नहीं लगने वाली 

उसने  भी नया घर,तलाश लिया  है      .....चुप्पी पर खूब बोली हैं और क्या  खूब बोली है आप...हार्दिक बधाईप्रेषित है आदरणीया कांता जी 

अंतिम पंक्ति कुछ अस्पष्ट है,  जम कर कौन हंसता रहा ..यहाँ शायद बाजू की बात हो रही है ....     

 

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