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ग़ज़ल - इक अक़ीदा चल के बुतखाना हुआ -( गिरिराज भंडारी )

2122    2122    212 -

की मुहब्बत पर न जल जाना हुआ

जल उठूँ, ऐसा न मस्ताना हुआ

 

इक अक़ीदत बढ के मस्ज़िद हो गई   *---  श्रद्धा

इक अक़ीदा चल के बुतखाना हुआ  ----    विश्वास ,

वो न आयें, तो रहीं मजबूरियाँ 

हम न पहुँचे तो ये तरसाना हुआ

बात उनकी सच बयानी हो गई

हम हक़ीक़त जब कहे , ताना हुआ

 

आपने कैसी खुशी बाँटी हुज़ूर

चेह्रा चेह्रा आज ग़मख़ाना हुआ

 

चाहते इल्मो अदब ने ये किया 

घूमता हूँ ख़ुद से बेगाना हुआ

 

जिसने देखा है ख़ुदा को, आये बर 

या ख़ुदा को मै कहूँ , माना हुआ ?

 

क्या रहें इस शह्र में ऐ दिल बता ?

एक भी चेहरा नहीं जाना हुआ

*************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by rajesh kumari on August 18, 2016 at 6:39pm

बेहतरीन ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद आई दिल से दाद हाजिर है |

Comment by Naveen Mani Tripathi on August 18, 2016 at 11:04am
वाह कमाल कर दिया आदरणीय
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 17, 2016 at 8:19pm

आ० अनुज मैं तो निशब्द हूँ .कमाल है .

Comment by Samar kabeer on August 17, 2016 at 3:20pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बहुत उम्दा और मुरस्सा ग़ज़ल से नवाजा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
"चाहते इल्मो अदब ने ये किया"

इस मिसरे में आप शायद ये कहना चाहते हैं कि'इल्मो अदब की चाहत में',अगर मेरा कहना सही है तो ये मिसरा इस तरह लिखना होगा:-
"चाहत-ए-इल्म-ओ-अदब ने ये किया"

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