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ग़ज़ल - मुहब्बत करने वाला क्यूँ कभी तनहा नहीं मिलता

मफ़ाईलुन/मफ़ाईलुन/मफ़ाईलुन/मफ़ाईलुन

किसी को भी यहाँ पे क्यूँ कोई अपना नहीं मिलता
तुम्हें तुम सा नहीं मिलता, हमें हम सा नहीं मिलता

ज़माना घूम के बैठे, दुआएँ कर के भी देखीं
हमें तो यार कोई भी कहीं तुम सा नहीं मिलता

ज़मीनें एक थीं फिर भी लकीरें खींच दीं हमने
सभी से इसलिए भी दिल यहाँ सबका नहीं मिलता

वहाँ पे बैठ के साहब लिखे तक़दीर वो सबकी
लिखावट एक जैसी है तो क्यूँ लिक्खा नहीं मिलता

वो जब से शहर से लौटा यही इक बात कहता है
वहाँ मुर्दे तो मिलते हैं मगर ज़िन्दा नहीं मिलता

रहे ग़र याद ये तुमसे तो इसको याद कर लेना
समन्दर फिर भी मिलते हैं मगर दरिया नहीं मिलता

तड़पना, मुस्कुराना, यार रोना और खो जाना
मुहब्बत करने वाला क्यूँ कभी तनहा नहीं मिलता

मुक़द्दर इक बहाना था, न जाने क्या बचाना था
अगर हम ठान लेते तो यहाँ पे क्या नहीं मिलता

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on July 4, 2016 at 7:41pm
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि सर, सादर!
Comment by Ravi Shukla on July 4, 2016 at 2:45pm

आदरणीय महेद्र जी बढि़या गजल के लिये बधाई स्‍वीकार करें 

मुहब्बत करनेवाला क्यों कभी तन्हा नहीं मिलता  बढि़या बात कही है आपने । 

Comment by Mahendra Kumar on July 3, 2016 at 1:31pm
हार्दिक आभार आदरणीय शिज्जु सर, सादर!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 3, 2016 at 8:43am
/मुहब्बत करनेवाला क्यों कभी तन्हा नहीं मिलता/ वाह क्या खूब कहा। बहुत बहुत बधाई आपको
Comment by Mahendra Kumar on July 2, 2016 at 11:07pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपको ग़ज़ल अच्छी लगी इसके लिए आपका हृदय से धन्यवाद! जिस मिसरे का आपने ज़िक्र किया है वहाँ उम्मीद की बात कहाँ से आ गयी यह मुझे समझ नहीं आया। यदि आप इसे स्पष्ट कर सकें तो बेहतर होगा। हाँ, आपका सुझाव निश्चित ही बहुत अच्छा है क्योंकि 'मुर्दे' शब्द का प्रयोग मुझे खटक-सा रहा था। आप द्वारा दिया गया संशोधित मिसरा मुझे बेहद पसन्द आया। इसके लिये आपको हृदय से आभार, सादर!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 2, 2016 at 9:24pm

अ० महेंद्र जी  बढ़िया गजल हुयी है . आपकी फोटो बिलकुल बच्चे जैसी लगती है पर आप् बच्चे हैं नहीं तो ठीक फोटो लगायें ना . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 2, 2016 at 6:10pm

आदरनीय महेन्द्र भाई , लाजवाब गज़ल हुई है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।

तार्किकता के लिहाज़ से एक शे र मे परिवर्तन की ज़रूरत लग रही है --

वो जब से शहर से लौटा यही इक बात कहता है
वहाँ मुर्दे तो मिलते हैं मगर ज़िन्दा नहीं मिलता    ---  मुर्दे आपने जब कह ही दिया तो ज़िन्दा रहने की उम्मीद क्यों ?

ऐसे कह के देखिये , अगर सही लगे तो ---

वो जब से शहर से लौटा यही इक बात कहता है
वहाँ पर आदमी तो है, मगर ज़िन्दा नहीं मिलता  -- या और जो कुछ आप चाहें ।

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